Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
१८८
जैन साहित्य
सकते हैं । इस चिन्तामणि वृत्ति पर अजितसेन कृत मणिप्रकाशिका नामक टीका है । मूल सूत्रों पर लघुकौमुदी के समान एक छोटी टीका दयापाल मुनि कृत रूपसिद्धि है । कर्ता के गुरु मतिसागर पार्श्वनाथ-चरित के कर्ता वादिराज सूरि के समसामयिक होने से ११ वीं शती के सिद्ध होते हैं। एक सिद्धान्त कौमुदी के ढंग की 'प्रक्रियासंग्रह' अभयचन्द्र कृत प्रकाश में आ चुकी है (बम्बई, १९०७ एक और टीका है वादिपर्वतवज्र भावसेन विद्यदेवकृत शाकटायन टीका है । इसके कर्ता अनुमानतः वे ही हैं जिन्होंने कातंत्र की रुपमाल नामक टीका लिखी है। तथा जिनका एक विश्वतत्वप्रकाश नामक ग्रन्थ भी पाया जाता है । अमोघवृत्ति पर प्रभाचन्द्र कृत न्यास भी है, किन्तु अभी तक इसके केवल दो अध्याय प्राप्त हुए हैं । माधवीय धातुवृत्ति में इसके तथासमन्तभद्रकृत चितामणि विषम पद-टीका के अवतरण मिलते हैं। एक और मंगरसकृत प्रतिपद नामक टीका के भी उल्लेख मिलते हैं।
___एक तीसरी व्याकरण-परम्परा सर्ववर्माकृत कातंत्र व्याकरण सूत्र से प्रारंभ हुई पाई जाती है । इसके रचनाकाल का निश्चय नहीं। किन्तु है वह अति प्राचीन और शाकटायन से भी पूर्व की है, क्योंकि इसकी टीकाओं को परम्परा दुर्गसिंह से प्रारम्भ होती है, जो लगभग ८०० ई० में हुए माने जाते हैं । काच्चायन पालि-व्याकरण की रचना में कातंत्र का उपयोग किया गया है। इसकी रचना में नाना विशेषताएं हैं, और परिभाषाओं में भी यह पाणिनि से बहुत कुछ स्वतन्त्र है। इसकी सूत्र-संख्या १४०० से कुछ अधिक है। दुर्गसिंह की वृत्ति पर त्रिलोचनदास कृत वत्ति-विवरण पंजिका, और उस पर जिनेश्वर के शिष्य जिनप्रबोध कृत 'वृत्तिविवरणपजिका-दुर्गपदप्रबोध' (वि० सं० १३६१ से पूर्व) पाये जाते हैं । अन्य उपलभ्य टीकायें हैं दुढ़क के पुत्र महादेव कृत शब्दसिद्धि वृत्ति (वि० सं० १३४० से पूर्व), महेन्द्रप्रभ के शिष्य मेरुतुगसूरि कृत बालबोध (वि० सं० १४४४), वर्धमान कृत विस्तार (वि० सं० १४५८ से पूर्व), भावसेन विद्यकृत रुपमालावृत्ति, गाल्हणकृत चतुष्कवृत्ति मोक्षेश्वर कृत आख्यान-वृत्ति व पृथ्वीचन्द्रसूरि कृत वृत्ति । एक 'कालापक-विशेष व्याख्यान' भी मिलता है, जिससे मूलपथ का नाम कालापक भी प्रतीत होता है। एक पद्यात्मक टीका ३१०० श्लोक-प्रमाण कौमार-सम्मुच्चय नाम की भी है। कातंत्र-संम्रम
और विद्यानन्दसूरिकृत कातन्त्रोत्तर नामक टीकायें भी पाई गई हैं; और कुछ अन्य भी, जिनमें कर्ता का नाम नहीं । इन कृतियों में कुछ के कर्ता अजैन विद्वान् भी प्रतीत होते हैं। इन सब रचनाओं से इस व्याकरण का अच्छा प्रचार रहा सिद्ध होता है । इसका एक कारण यह भी है कि यह जैनेन्द्र व शाकटायन की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org