Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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. जैन साहित्य (अनुवाद) श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ तथा अन्यधर्मावलंबियों ने (गणधर स्वामी से) पूछा-वे कौन हैं जिन्होंने सुन्दर समीक्षा पूर्वक इस सम्पूर्ण हितकारी असाधारण धर्म का उपदेश दिया है ? इस धर्म के उपदेष्टा ज्ञातपुत्र (महावीर) का कैसा ज्ञान था, कैसा दर्शन और कैसा शील था ? हे भिक्षु, तुम यथार्थ रूप से जानते हो। जैसा सुना हो, और जैसा धारण किया हो, वैसा कहो । इसपर गणधर स्वामी ने कहा-वे भगवान् महावीर क्षेत्रज्ञ (अर्थात् प्रात्मा और विश्व को जानने वाले) थे; कुशल आशुप्रज्ञ, अनंतज्ञानी व अनंतदर्शी थे। उन यशस्वी, साक्षात् अरहंत अवस्था में स्थित, भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्म और धुति (संयम में रति) को देख लो और जान लो। ऊर्ध्व, अधः एवं उत्तर-दक्षिण आदि तिर्यक दिशाओं में जो भी त्रस या स्थावर जीव हैं, उन सबके नित्यअनित्य गुणधर्मों की समीक्षा करके उन ज्ञानी भगवान् ने सम्यक् प्रकार से दीपक के समान धर्म को प्रकट किया है। वे भगवान् सर्वदशी, ज्ञानी, निरामगंध (निष्पाप), धृतिमान्, स्थितात्मा, सर्व जगत् में अद्वितीय विद्वान्, ग्रंथातीत (अर्थात् परिग्रह रहित निग्रन्थ), अभय और अनायु (पुनर्जन्म रहित) थे। वे भूतिप्रज्ञ (द्रव्य-स्वभाव को जानने वाले), अनिकेतचारी (गृहत्याग कर विहार करने वाले) संसार समुद्र के तरने वाले, धीर, अनंतचक्षु (अनन्तदर्शी) असाधारण रूप से उसी प्रकार तप्तायमान व अंधकार में प्रकाश वाले हैं, जैसे सूर्य, वैरोचन (अग्नि) व इन्द्र ।
अवतरण-२
अर्धमागधी-प्राकृत कम्मसंगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहुवेयणा । अमाणसासु जोणीसु विणिहम्मति पाणिणो ॥१॥ कम्माणं तु पहाणाए आणुपुवी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ।।२।। माणुस्सं विग्गहं लद्धसुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जति तवं खंतिमहिंसयं ॥३॥ आहच्च सवणं लद्ध सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेआउसं मग्गं बहवे परिभस्सई ॥४॥
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