Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
अण्णाणी पुण रत्तो सव्यदव्वेसु कम्ममज्झगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥२॥ णगफणीए मूलं गाइणि-तोएण गब्भणागेण । णागं होइ सुवण्णं धम्मतं भच्छवाएण ॥३॥ कम्मं हवेइ किट्ट रागादी कालिया अह विभाओ। सम्मत्तणाणचरणं परमोसहमिदि वियाणाहि ॥४॥ झाणं हवेइ अग्गी तवयरणं भत्तली समक्खादो। जीवो हवेइ लोहं धमियव्वो परमजोईहिं ॥५॥ भुज्जंतस्स वि दव्वे सच्चित्ताचित्तमिस्सिये विविहे । संखस्स सेदभावो णवि सक्कदि किण्हगो कादु ॥६॥ तह णाणिस्स दु विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दवे । भुज्जंतस्स वि णाणं णवि सक्कदि रागदो(णाणदो)णेदु ॥७॥
(कुन्दकुन्दः समयसार २२६-२३५)
(अनुवाद) ज्ञानी सब द्रव्यों के राग को छोड़कर कर्मों के मध्य में रहते हुए भी कर्मरज से लिप्त नहीं होता, जैसे कर्दम के बीच सुवर्ण । किन्तु अज्ञानी समस्त द्रव्यों में रक्त हुआ कर्मों के मध्य पहुंच कर कर्म-रज से लिप्त होता है, जैसे कर्दम में पड़ा लोहा । नागफणी का मूल, नागिनी तोय गर्भनाग से मिश्रित कर (लोहे को) मनिका की धोंकसे अग्नि में तपाने पर शुद्ध सुवर्ण बन जाता है। कर्म कीट है, और रागादि विभाव उसकी कालिमा । इनको दूर करने के लिये सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही परम औषधि जानना चाहिये । ध्यान अग्नि है, तपश्चरण धौंकनी (भस्रिका) कहा गया है । जीव लोहा है जो परम योगियों द्वारा धौंका जाता है, (और इस प्रकार परमात्मा रूपी सुर्वण-बना लिया जाता है)। सचित्त, अचित्त, व मिश्ररूप नाना प्रकार के द्रव्यों के संयोग से भी शंख की सफेदी काली नहीं की जा सकती। उसी प्रकार ज्ञानी के सचित्त, अचित्त व मिश्र रूप विविध द्रव्यों का उपयोग करने पर भी राग द्वारा उसके ज्ञान स्वभाव का अपहरण नहीं किया जा सकता (अर्थात् ज्ञान को अज्ञान रूप परिणत नहीं किया जा सकता)।
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