Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी प्राकृत
सुइं च लद्ध सद्ध ं च वीरियं पुण दुल्लहं । बहवे रोयमारणावि नो य जं पडिवज्जए ॥ ५ ॥ माणुसत्तम आयाउ जो धम्मं सोच्च सद्दहे । तपस्सी वीरियं लद्ध संबुडे निद्धणे रयं ॥ ६ ॥ सोही उज्जयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई | निव्वाणं परमं जाइ घयसित्ति व्व पावए ||७||
( उत्तराध्ययन, ३-६-१२)
(अनुवाद)
कर्मों के संसगं से मोहित हुए प्राणी दुखी व बहुत वेदनाओं से युक्त होते हुए अमानुषिक (पशु-पक्षी आदि तिर्यच) योनियों में पड़ते हैं । कदाचित् अनुपूर्वी से कर्मों की क्षीणता होने पर जीव शुद्धि प्राप्त कर मनुष्यत्व ग्रहण करते हैं । मनुष्य शरीर पाकर भी ऐसा धर्म-श्रवण पाना दुर्लभ है, जिसको सुनकर (जीव ) क्षमा, अहिंसा व तप का ग्रहण करते हैं । यदि किसी प्रकार धर्म-श्रवण मिल भी गया, तो उसमें श्रद्धा होना परम दुर्लभ है, और इसलिए बहुत से लोग उद्धार करने वाले मार्ग (धर्म) को सुनकर भी भ्रष्ट हो जाते हैं । धर्म-श्रवण पाकर व श्रद्धा प्राप्त होने पर भी वीर्य (धर्माचरण में पुरुषार्थ ) दुर्लभ है । बहुत से जीव रुचि (श्रद्धा) रखते हुए भी सदाचरण नहीं करते । मनुष्य योनि में आकर जो धर्म का श्रवण करता है और श्रद्धान रखता है, एवं तपस्वी हो पुरुषार्थं लाभ करके आत्म-संवृत्त होता है, वह कर्म-रज को झड़ा देता है । सरल स्वभावी प्राणी को ही शुद्धि प्राप्त होती है और शुद्ध प्राणी के हो धर्म स्थिर होता है वही परम निर्वाण को जाता है, जैसे धृत से सींची जाने पर अग्नि ( ऊपर को जाता है ) ।
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अवतरण -३
शौरसेनी प्राकृत
रणारणी रागप्पजहो सव्वदव्वेसु कम्ममज्झगदो । गो लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा कणयं ॥१॥
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