Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जीव तत्त्व
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दूसरी ओर यह भी स्वीकार किया गया पाया जाता है कि जीवन में ऐसा भी कोई तत्व है जो जन्म-जन्मान्तरों में से होता हुआ चला आता है। जो शरीर रूपी घर का निर्माण करता है। शरीर-धारण को दुःखमय पाता है, और उससे छूटने का उपाय सोचता और प्रयत्न करता है; चित्त को संस्कार रहित बनाता और तृष्णा का क्षय कर निवाण प्राप्त करता है; यथा--
अनेक-जाति-संखारं संधाविस्सं अनिम्बिसं। गहकारकं गवसंतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं ॥ गहकारक विट्ठोसि पुन गेहं न काहिसि । सब्बा ते फासुका भग्गा गहकटं विसंलितं ।
विसंखारगतं चित्त तण्हा मे खयमज्मगा । (धम्मपद, १५३-५४) यहां स्पष्टतः भौतिक शरीर के अतिरिक्त आत्मा जैसे किसी अन्य अनादि अनन्त तत्व की स्वीकृति का प्रमाण मिलता है। जैन दर्शन में जीव तत्त्व_जैन सिद्धान्त में जीव का मुख्य लक्षण उपयोग माना गया है। उपयोग के दो भेद हैं.--दर्शन और ज्ञान । दर्शन शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है । सामान्य भाषा में दर्शन का अर्थ होता है-किसी पदार्थ को नेत्रों द्वारा देखने की क्रिया । शास्त्रीय दृष्टि से दर्शन का अर्थ है-- जीवन व प्रकृति सम्बन्धी व्यवस्थित ज्ञान, जैसे सांख्य, वेदान्त या जैन व बौद्ध दर्शन । किन्तु जैन सिद्धान्त में जीव के दर्शन रूप गुण का अर्थ होता है-आत्म-चेतना । प्रत्येक जीव में अपनी सत्ता के अनुभवन की शक्ति का नाम दर्शन है, व बाह्य पदार्थों को जानने समझने की शक्ति का नाम है ज्ञान । जीव के इन्हीं दो अर्थात् दर्शन और ज्ञान, अथवा स्वसंवेदन व पर-संवेदन रूप गुणों को उपयोग कहा गया है। जिन पदार्थों में यह उपयोग-शक्ति है, वहां जीव व आत्मा विद्यमान है, और जहां इस उपयोग गुण का सर्वथा अभाव है, वहां जीव का अस्तित्व नहीं माना गया। इस प्रकार जीव का निश्चित लक्षण चैतन्य है। इस चैतन्य-युक्त जीव की पहचान व्यवहार में पांच इन्द्रियों, मन वचन व काय रूप तीन बलों, तथा श्वासोच्छ्वास और आयु, इन दस प्राण रूप लक्षणों की हीनाधिक सत्ता के द्वारा की जा सकती है
पंच वि इंदियाणा मनवचकायेसु तिष्णि बलपाणा । प्राणप्पाणप्पाणा आउगपारणेग होति दस पाणा ॥
(गो० जी० १२६)
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