Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य प्रतीत होता है कि वे उनसे पूर्व समाविष्ट हो गई थीं। अन्य प्राचीन प्रतियों की बड़ी आवश्यकता है ।।
प्राकृत में छंदःशास्त्र का कुछ सर्वांगीण निरूपण करने वाले सुप्राचीन कवि स्वयंभू पाये जाते हैं, जिनके पउमचरिउ और हरिवंशचरिउ नामक अपभ्रंश पुराणों का परिचय पहले कराया जा चुका है, और जिसके अनुसार उनका रचनाकाल ७-८ वीं शती सिद्ध होता है । स्वयंभूछंदस का पता हाल ही में चला है, और उस एक मात्र हस्तलिखित प्रति में आदि के २२ पत्र न मिल सकने से ग्रन्थ का उतना भाग अनुपलब्ध है । यह ग्रन्थ मुख्यतः दो भागों में विभाजित है, एक प्राकृत और दूसरा अपभ्रंश विषयक । प्राकृत छंदों का निरूपण तीन परिच्छेदों में किया गया है आदिविधि, अर्धसम और विसमवृत्त; तथा अपभ्रंश का निरूपण उच्छाहादि छप्पअजाति, चउप्पअ, दुवअ, शेष द्विपदी और उत्थक्क आदि । इस प्रकार इसमें कुल ६ परिच्छेद हैं। प्राकृत छंदों में प्रथम परिच्छेद के भीतर शक्वरी आदि १३ प्रकार के ६३ छंदों का निरूपण किया गया है, जिनमें १४ अक्षरों से लेकर २६ अक्षरों तक के चार चरण होते हैं। १ से १३ अक्षरों तक के वृत्तों का स्वरूप अप्राप्त अंश में रहा होगा। इससे अधिक अक्षरों के वृत्त दण्डक कहे गये हैं। दूसरे परिच्छेद में वेगवती आदि अर्धसम वृत्तों का निरूपण किया गया है, जिनके प्रथम और द्वितीय चरण परस्पर भिन्न व तीसरे
और चौथे के सदश होते हैं। तीसरे परिच्छेद में उद्गतादि विषम वृत्तों का वर्णन है, जिनके चारों चरण परस्पर भिन्न होते हैं । अपभ्रंश छंदों में पहले उत्साह, दोहा और उसके भेद, मात्रा, रड्डा आदि १२ वृत्तों का, फिर पांचवें परिच्छेद में छह पदों वाले ध्रुवक, जाति, उपजाति आदि २४ छंदों का, छठे में सौ अर्घ सम और आठ सर्वसम, ऐसे १२ चतुष्पदी ध्र वक छंदों का, सातवें में ४० प्रकार की द्विपदी का, आठवें में चार से दस मात्राओं तक की शेष दस द्विपदियों का, और अन्त में उत्थवक, ध्र वक, छड्डनिका और धत्ता आदि वृत्तों का निरू पण किया गया है।
स्वयंभू-छंदस् की अपनी अनेक विशेषताएं हैं । एक तो उसकी समस्त रचना और समस्त उदाहरण प्राकृत-अपभ्रंशात्मक हैं। दूसरे, उन्होंने मात्रा गणों के लिये अपनी मौलिक संज्ञाएं जैसे द, त, च आदि प्रयुक्त की हैं। तीसरे, उन्होंने अक्षर और मात्रा-गणों में कोई भेद नहीं किया; तथा संस्कृत के अक्षर-गण वृत्तों को भी प्राकृत के द मात्रा-गण के रूप में दर्शाया है । चौथे, स्वयंभू ने पाद बीच यति के सम्बन्ध में दो परम्पराओं का उल्लेख किया है, जिनमें से मांडव्य, भरत, कश्यप, और सैतव ने यति नहीं मानी। स्वयंभू ने अपने को इसी परम्परा का प्रकट किया है। और पांचवें, उन्होंने जो उदाहरण दिये हैं, वे उनके समय
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