Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
१९८
जैन साहित्य
अवलोकन पर से होता है। उदाहरणार्थ; ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही 'अज्ज' शब्द ग्रहण किया है और उसका प्रयोग 'जिन' के अर्थ में बतलाया है । टीका में प्रश्न उठाया है कि 'अज्ज' तो स्वामी का पर्यायवाची आर्य शब्द से सिद्ध हो जाता हैं ? इसका उत्तर उन्होंने यह दिया कि उसे यहाँ ग्रन्थ के आदि में मंगलवाची समझ कर ग्रहण कर लिया है। १८ वी गाथा में 'अविणयवर' शब्द जार के अर्थ में ग्रहण किया गया है। टीका में कहा है कि इस शब्द की व्युत्पत्ति 'अविनय-वर' से होते हुए भी संस्कृत में उसका यह अर्थ प्रसिद्ध नहीं है, और इसलिये उसे यहां देशी माना गया है। ६७ वी गाथा में 'आरणाल' का अर्थ कमल बतलाया गया है । टीका में कहा गया है कि उसका वाचिक अर्थ यहाँ इसलिये नहीं ग्रहण किया क्योंकि वह संस्कृतोद्भव है । 'आसियअ' लोहे के घड़े के अर्थ में बतलाकर टीका में कहा है कि कुछ लोग इसे अयस् से उत्पन्न आयसिक का अपभ्रंश रूप भी मानते हैं, इत्यादि । इन टिप्पणों पर से कोषकार के अपने पूर्वोक्त सिद्धान्त के पालन करने की निरन्तर चिन्ता का आभास मिल जाता है। उनकी संस्कृत टीका में इस प्रकार से शब्दों के स्पष्टीकरण व विवेचन के अतिरिक्त गाथाओं के द्वारा उक्त देशी शब्दों के प्रयोग के उदाहरण भी दिये हैं। ऐसी कुल गाथाओं की संख्या ६३४ पाई जाती है। इनमें ७५ प्रतिशत गाथाएं शृंगारात्मक हैं । लगभग ६५ गाथाएं कुमारपाल की प्रशंसा विषयक हैं, और शेष अन्य । ये सब स्वयं हेमचन्द्र की बनाई हुई प्रतीत होती है । शब्द विवेचन के सम्बन्ध में अभिमानचिन्ह, अवन्तिसुन्दरी, गोपाल, देवराज, द्रोण, धनपाल, पाठोदूखल, पादलिप्ताचार्य, राहुलक, शाम्ब, शीलांक और सातवाहन. इन १२ शास्त्रकारों तथा सारतरदेशी और अभिमामचिन्ह, इन दो देशी शब्दों के सूत्र-पाठों के उल्लेख मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि देशी शब्दों के अनेक कोष ग्रन्थकार के सम्मुख उपस्थित थे । आदि की दूसरी गाथा की टीका में लेखक ने बतलाया है कि पादलिप्ताचार्य आदि द्वारा विरचित देशी शास्त्रों के होते हुए भी उन्होंने किस प्रयोजन से यह ग्रन्थ लिखा । उपर्युक्त नामों में से धनपाल कृत 'पाइ-लच्छीनाममाला' कोष तो मिलता है, किन्तु शेष का कोई पता नहीं चलता । टीका में कुछ अवतरण ऐसे भी हैं जो धनपाल कृत कहे गये हैं; किन्तु वे उनकी उपलभ्य कृति में नहीं मिलते । मृच्छकटिक के टीकाकार लाला दीक्षित ने 'देशी-प्रकाश' नामक देशी कोष का अवतरण दिया है, तथा क्रमदीश्वर ने अपने संक्षिप्त-सार में 'देशीसार' नामक देशी कोष का उल्लेख किया है। किन्तु दुर्भाग्यतः ये सब महत्वपूर्ण ग्रन्थ अब नहीं मिलते । देशी-नाममाला के प्रथम सम्पादक डा० पिशल ने इस कोष की उदाहरणात्मक गाथाओं के भ्रष्ट पाठों की बड़ी शिकायत की थी। प्रो. मुरलीघर बनर्जी ने अपने संस्करण में पाठों का बहुत कुछ संशोधित रूप
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org