Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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प्रथमानुयोग-संस्कृत
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१३१२) नौ सों में समाप्त हुआ है। कवि के उल्लेखानुसार उन्हें सूरप्रभ ने विद्यानन्द व्याकरण पड़ाया था । (प्र० भावनगर, १९१७)। , सकलकीर्ति कृत अभयकुमार-चरित का भी उल्लेख मिलता है। धनप्रम सूरि के शिष्य सर्वानन्द सूरि कृत जगडु-चरित्र (१३ वीं शती) ७ सर्गों का काव्य है, जिसमें कुल ३८८ पद्य हैं । इस काव्य का विशेष महत्व यह है कि उसमें बीसलदेव राजा का उल्लेख है, तथा वि० सं० १३१२-१५ के गुजरात के भीषण दुर्भिक्ष का वर्णन किया गया है । रचना उस काल के समीप ही निर्मित हुई प्रतीत होती है।
कृष्णर्षि गच्छीय महेन्द्रसूरि के शिष्य जयसिंहसूरि कृत (वि० सं० १४२२) कुमारपाल-चरित्र १० सर्गों में समाप्त हुआ है, और उसमें उन्हीं गुजरात के राजा कुमारपाल का चरित्र व धार्मिक कृत्यों का वर्णन किया गया है, जिन पर हेमचन्द्र ने अपना कुमारपाल चरित नामक द्वयाश्रय प्राकृत काव्य लिखा। संस्कृत में अन्य कुमारपाल चरित रत्नसिंह सूरि के शिष्य चारित्रसुन्दर गणि कृत (वि० सं० १४८७), धनरत्नकृत (वि० सं० १५३७) तथा सोमविमल कुत और सोमचन्द्र गणि कृत भी पाये जाते हैं। मेरूतुग के शिष्य माणिक्यसुन्दर कृत महीपाल-चरित्र (१५ वीं शती) एक १५ सर्गात्मक काव्य है जिसमें वीरदेवगणि कृत प्राकृत महिवालकहा के आधार पर उस ज्ञानी और कलाकुशल महीपाल का चरित्र वर्णन किया गया है, जिसने उज्जैनी से निर्वासित होकर नाना प्रदेशों में अपनी रत्न-परीक्षा, वस्त्र-परीक्षा व पुरुष-परीक्षा में मिपुणता के चमत्कार विखा कर धन और यश प्राप्त किया । वृत्तान्त रोचक और शैली सरल, सुन्दर और कलापूर्ण है।
भक्तिलाभ के शिष्य चारुचन्द कत उत्तमकुमार-चरित्र ६०६ पद्यों का काव्य है जिसमें एक धार्मिक राजकुमार की नाना साहसपूर्ण घटनाओं और अनेक अवान्तर कथानकों का वर्णन है । इसके रचना-काल का निश्चय नहीं हो सका। इसी विषय की दो और पद्यात्मक रचनायें मिलती हैं। एक सोमसुन्दरसूरि के शिष्य जिनकीर्ति कृतं और दूसरी सोमसुन्दर के प्रशिष्य व रत्नशेखर के शिष्य सोममंडन गणी कत । ये वाचार्य तपागच्छ के थे। पट्टावली के अनुसार सोमसुन्दर को वि० सं० १४५७ में सूरिपद प्राप्त हुआ था। एक और इसी विषय की काव्यरचना शुभशीलगणी त पाई जाती है। चारुचन्द्र कृत उत्तमकुमार-कथा का एक गद्यात्मक रूपान्तर भी है । वेबर ने इसका सम्पादन व जर्मन भाषा में अनुवाद सन् १८६४ में किया है।
कृष्णर्षि गच्छ के जयसिंहसूरि की शिष्य-परम्परा के नयचन्द्रसूरि (१५ वीं
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