Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य जाता है । देवेन्द्र सूरि के शिष्य श्रीचन्द्र सूरि कृत मनत्कुमार-चरित्र (वि० सं० १२१४) में उन्हीं चक्रवर्ती का चरित्र वर्णित है, जिनका उल्लेख उक्त नाम की प्राकृत रचना के सम्बन्ध में किया जा चुका है । इसी नाम का एक और संस्कृत काव्य जिनचन्द्र सूरि के प्रशिष्य तथा जिनपतिसूरि के शिष्य जिनपाल कत प्रकाश में आ चुका है । मलधारी देवप्रभ कृत मृगावती-चरित्र (१२वीं शती) संस्कृत पद्यात्मक रचना है और उसमें उदयन-वासवदत्ता का कथानक वर्णित है। मृगावती उदयन की माता, राजा चेटक की पुत्री थी, और महावीर तीर्थंकर की उपासिका थी। उसकी ननद जयन्ती ने तो महावीर से नाना प्रश्न किये थे और अन्त में प्रवज्या ले ली थी। जिसका वृत्तान्त भगवती के १२ वें शतक के दूसरे उद्देश में पाया जाता है उक्त कथा के आश्रय से प्रस्तुत ग्रन्थ में नाना उपकथाएँ वर्णित हैं। मलधारी देवप्रभ पाण्डव-चरित्र के भी कर्ता हैं । जिनपति के शिष्य पूर्णभद्र कृत धन्य-शालिभद्र चरित्र (वि० सं० १२८५) ६ परिच्छेदों व १४६० श्लोकों में समाप्त हुआ है। इस रचना में कवि की सर्वदेवसूरि ने सहायता की थी। इस काव्य में धन्य और शालिभद्र के चरित्रों का वर्णन किया गया है । धन्य-शालि चरित्र भद्रगुप्त कृत (वि० सं० १४२८), जिनकीर्ति कत (१५वीं शती) व दयावर्द्धन कत (१५वीं शती) भी पाये जाते हैं। धर्मकुमार कृत शालिभद्र-चरित (१२७७ ई०) में ७ सर्ग हैं। कथानक हेमचन्द्र के महावीरचरित में से लिया गया है, और काव्य की रीति से छन्द व अलंकारों के वैशिष्टय सहित वर्णित है । लेखक की कृति को प्रद्युम्न सूरि ने संशोधित करके उसके काव्य-गुणों को और भी अधिक चमका दिया है। शालिभद्र महावीर तीर्थंकर के समय का राजगृह-निवासी धनी गृहस्थ था, जो प्रत्येक बुद्ध हुआ। चन्द्रगच्छीय हरिभद्रसूरि के शिष्य बालचन्द्रसूरि कत वसन्त-विलास (वि० सं० १२६६) १४ सगों में समाप्त हुआ है, और इसमें गुजरात नरेश बीरधवल के मन्त्री वस्तुपाल का चरित्र वर्णन किया गया है (बड़ौदा, १९१७)। इसी के साथ श्रीतिलकसूरि के शिष्य राजशेखर कृत वस्तुपाल-तेजपाल प्रबन्ध भी प्रकाशित है । वस्तुपाल मन्त्री और उनके भ्राता तेजपाल ने आबू के मन्दिर बनवा कर, तथा अन्य भनेक जैनधर्म के उत्थान सम्बन्धी कार्यों द्वारा अपना नाम जैन सम्प्रदाय में अमर बना लिया है। उक्त रचनाओं के द्वारा उनके चरित्र पर जयचन्द्र के शिष्य जिनहर्ष गणि कत (वि० सं० १४६७, प्रका० भावनगर, १६७४) तथा वर्धमान, सिंहकवि, कीर्तिविजय आदि कृत रचनाएं भी मिलती हैं । इनके अतिरिक्त उनकी संस्कृत प्रशस्तियां जयसिंह, बालचन्द्र, नरेन्द्रप्रभ आदि द्वारा रचित मिलती हैं।
जिनेश्वर सूरि के शिष्य चन्द्रतिलक कृत प्रमयकुमार-चरित्र (वि० सं०
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