Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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प्रथमानुयोग-संस्कृत
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जैन साहित्य में पाई जाती हैं, वे कुछ पूर्णरूप से पद्यात्मक हैं, कुछ गद्य और पद्य दोनों के उपयोग सहित चम्पू की शैली के हैं, और कुछ बहुलता से गद्यात्मक हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
सोमदेव सूरि कृत यशस्तिलक चम्पू (शक ८८१) उत्कृष्ट संस्कृत गद्यपद्यात्मक रचना है । इसका कथानक गुणभद्र कृत उत्तरपुराण से लिया गया है, और पुष्पदन्त कत अपभ्रंश-जसहर चरिउ के परिचय में दिया जा चुका है। अन्तिम तीन अध्यायों में गृहस्थ धर्म का सविस्तार निरूपण है, और उपासकाध्ययन के नाम से एक स्वतन्त्र रचना बन गई है । इसी कथानक पर वादिराज सूरि कृत यशोधर चरित (१० वीं शती) चार सर्गात्मक काव्य, तथा वासवसेन (१३ वीं शती) सकलकीर्ति (१५ वीं शती) सोमकीर्ति (१५ वीं शती) और पद्मनाभ (१६-१७ वीं शती) कृत काव्य पाये जाते हैं। मणिक्यसूरि (१४ वीं शती) ने भी यशोधर-चरित संस्कृत पद्य में रचा है, और अपनी कथा का आधार हरिभद्र कृत कथा को बतलाया है । क्षमाकल्याण ने यशोधर-चरित की कथा को संस्कृत गद्य में संवत् १८३६ में लिखा और स्पष्ट कहा है कि यद्यपि इस चरित्र को हरिभद्र मुनीन्द्र ने प्राकृत में तथा दूसरों ने संस्कृत पद्य में लिखा है, किन्तु उनमें जो विषमत्व है, वह न रहे; इसलिये मैं यह रचना गद्य में करता हूं। हरिभद्र कृत प्राकृत यशोधर चरित के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि कर्ता के सम्मुख वह रचना थी, किन्तु आज वह अनुपलभ्य है । हरिचन्द्र कृत जीवंधर चम्पू (१५ वीं शती) में वही कथा काव्यात्मक संस्कृत गद्य-पद्य में वर्णित है, जो गुणभद्र कृत उत्तरपुराण (पर्व ७५), पुष्पदन्त कृत अपभ्रंश पुराण (संधि ६८), तथा ओडेयदेव वादीसिंह कत गद्यचिन्तामणि एवं वादीमसिंह कृत क्षत्रचूडामणि में पाई जाती है। इस अन्तिम काव्य के अनेक श्लोक प्रस्तुत रचना में प्रायः ज्यों के त्यों भी पाये जाते हैं। अन्य बातों में भी इस पर उसकी छाप स्पष्ट दिखाई देती है । क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि के कर्ता दोनों वादीसिंह एक ही व्यक्ति हैं या भिन्न, यह अभी तक निश्चयतः नहीं कहा जा सकता। इस सम्बन्ध में कुछ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें कर्ता के नाम के साथ ओडेयदेव का व गुरुपुष्पसेन का उल्लेख नहीं है। रचनाशैली व शब्द-योजना भी दोनों ग्रन्थों की भिन्न है। गद्यचिन्तामणि की भाषा ओजपूर्ण है। जबकि क्षत्रचूडामणि की बहुत सरल, प्रसादगुणयुक्त है; और प्रायः प्रत्येक श्लोक के अर्धभाग में कथानक और द्वितीयार्ध में नीति का उपदेश रहता है।
विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र कृत जीवंधर-चरित्र (वि० सं० १५६६) पाया
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