Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य राजा कृष्ण (तृतीय) का राज्य था। उन्हीं के मन्त्री भरत की प्रेरणा से कवि ने इस रचना में हाथ लगाया था। महापुराण की एक संधि के प्रारम्भ में कवि ने मान्यखेट पुरी को धारानाथ द्वारा जलाये जाने का उल्लेख किया है । धनपाल कृत 'पाइय-लच्छी-नाममाला' के अनुसार धारानगरी धाराधीश हर्षदेव द्वारा वि० स० १०२६ में लूटी और जलाई गई थी। इस प्रकार इस दुर्घटना का काल महापुराण की समाप्ति के छह-सात वर्ष पश्चात् सिद्ध होता है । अतएव अनुमानतः सन्धि के प्रारम्भ में उक्त संस्कृत श्लोक ग्रन्थ रचना के पश्चात् निबद्ध किया गया होगा। इस ग्रन्थ में तथा अपनी अन्य रचनाओं में कवि ने बहुत कुछ अपना वैयक्तिक परिचय भी दिया है, जिसके अनुसार उनके पिता का नाम केशव और माता का नाम मुग्धा देवी था, जो प्रारम्भ में शैव थे, किन्तु पीछे जैन धर्मावलम्बी हो गये थे । कवि कहीं अन्यत्र से मटकते हुए मान्यखेट पहुँचे, और वहाँ भरत ने उन्हें आश्रय देकर काव्य-रचना के लिये प्रेरित किया । वे शरीर से कृश और कुरूप थे; किन्तु उनकी कव्व-पिसल्ल (काव्य पिशाच) कवि कुलतिलक, काव्यरत्नाकर, सरस्वती निलय आदि उपाधियाँ उनकी काव्य-प्रतिभा की परिचायक हैं, जो रचना के सौन्दर्य और सौष्ठव को देखते हुए सार्थक सिद्ध होती है । समस्त महापुराण १०२ सन्धियों में पूर्ण हुआ है। प्रथम ३७ सन्धियों का कथाभाग उतना ही है, जितना संस्कृत आदि पुराण का; अर्थात् प्रथम तीर्थकर आदिनाथ और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती का जीवन चरित्र । शेष सन्धियों में उत्तरपुराण के समान अन्य शलाका पुरुषों का जीवनचरित्र वर्णित है। सन्धि ६६ से ७६ तक की ११ सन्धियों में राम की कथा आई है, जिसमें उत्तर पुराण में वर्णित कथा का अनुसरण किया गया है । किन्तु यहाँ आदि में गौतम द्वारा रामायण के विषय में वे ही शंकाएँ उठाई गई हैं, जो प्राकृत पउमचरियं व संस्कृत पद्मपुराण तथा स्वयम्भू कृत पउमचरिउ में पाई जाती हैं । सन्धि ८१ से १२ तक की १२ सन्धियों में कृष्ण और नेमिवाथ एवं कौरवपाण्डवों का वृत्तान्त संस्कृत हरिवन्श पुराण के अनुसार वर्णित है। किन्तु यह समस्त वर्णन कवि की असाधारण काव्य-प्रतिभा द्वारा बहुत ही सुन्दर, रोचक और मौलिक बन गया है । इसमें आये हुए नगरों पर्वतों, नदियों, ऋतुओं, सूर्य, चन्द्र के अस्त व उदय, युद्धों, विवाहों, वियोग के विलापों, विवाहादि उत्सव एवं शृगारादि रसों के वर्णन किसी भी संस्कत व प्राकृत के उत्कृष्टतम काव्य से हीन नहीं उतरते । कवि ने स्वयं एक सस्कृत पद्य द्वारा अपनी इस रचना के गुण प्रगट किये हैं, वे कहते हैं
अत्र प्राकृत-लक्षणानि सकला नीतिः स्थितिश्च्छन्दसामर्थालंकृतयो रसाश्च विविधास्तत्वार्थनिर्णीतयः ॥
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