Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
एक संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। इसमें वर्णित विषयों का इतना बाहुल्य है. कि वे इसका ज्ञानार्णव नाम सार्थक सिद्ध करते हैं । दिगम्बर परम्परा में योग विषयक ध्यानसार और योगप्रदीप नामक दो अन्य संस्कृत पद्यपद्ध रचनाएं भी मिलती है।
हेमचन्द्र (१२ वीं शती ई०) कृत योगशास्त्र में लगभग १००० संस्कृत श्लोक हैं। इनमें मुनि और श्रावक धर्मों का व तत्सम्बन्धी व्रतों का क्रमवार निरूपण है । तत्पश्चात् यहाँ श्रावक की दिनचर्या, कषाय जय द्वारा मनःशुद्धि तथा अनित्य आदि बारह भावनाओं का स्वरूप बतलाकर आसन, प्राणायाम, प्रत्या हार, धारणा; ध्यान के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ व रूपातीन तथा आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, आदि धर्मध्यान, और शुक्लध्यान, के चार भेद; केवलि समुद्घात और मोक्षप्राप्ति का वर्णन किया गया है । यह प्रायः समस्त वर्णन स्पष्ट रूप से शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव से कहीं शब्दशः और कहीं कुछ हेरफेर अथवा संकोच विस्तार पूर्वक लिया गया है । यहाँ तक कि प्राणायाम का विस्तार पूर्वक कोई ३०० श्लोकों में प्ररूपण करने पर भी उसे ज्ञानाणंव के समान मोक्षप्राप्ति में बाधक कहा गया है। शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के काल की दृष्टि से पूर्वापरत्व
और एक पर दूसरे की छाप इतनी सुस्पष्ट है कि हेमचन्द्र को शुभचन्द्र का इस विषय में ऋणी न मानने का कोई अवकाश नहीं।
आशाधर कृत अध्यात्म-रहस्य हाल ही प्रकाश में आया है। इसमें ७२ संस्कृत श्लोकों द्वारा आत्मशुद्धि और आत्मदर्शन एवं अनुभूति का योग की भूमिका पर प्ररूपण किया गया है। आशाधर ने अपनी अनगारधर्मामृत की टीका की प्रशस्ति में इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । इस ग्रन्थ की एक प्राचीन प्रति की अन्तिम पुष्पिका में इसे धर्मामृत का 'योगीद्दीपन' नामक अठारहवाँ अध्याय कहा है। इससे प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ का दूसरा नाम योगोद्दीन भी है और इसे कर्ता ने अपने धर्मामत के अन्तिम उपसंहारात्मक अठाहरवें अध्याय के रूप में लिखा था। स्वयं कर्ता के शब्दों में उन्होंने अपने पिता के आदेश से आरब्ध योगियों के लिये इस प्रसन्न, गम्भीर और प्रिय शास्त्र की • रचना की थी।
स्तोत्र साहित्य : - जैन मुनियों के लिये जो छह आवश्यक क्रियाओं का विधान किया गया है, उनमें चतुर्विंशति-स्तव भी एक है। इस कारण तीर्थंकरों की स्तुति की परम्परा प्रायः उतनी ही प्राचीन है, जितनी जैन संघ की सुव्यवस्था । ये स्तुतियाँ .
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