Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
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शीलांक ने स्पष्टतः कहा है कि राम और लक्ष्मण का चरित्र जो पउमचरियं में विस्तार से वर्णित है, उसे उन्होंने संक्षेप से कहा है ।
भद्रेश्वर कृत 'कहावलि' में त्रेसठ महापुरुषों का चरित्र वर्णित है । भद्रेश्वर अभयदेव के गुरु थे । अभयवेद के शिष्य आषाढ़ का समय लगभग ११६१ ई० पाया जाता है; अतएव यह रचना १२ वीं शती के प्रारम्भ की सिद्ध होती है । समस्त रचना प्राकृत गद्य में लिखी गई है; केवल यत्र तत्र पद्य पाये जाते हैं । ग्रन्थ में कोई अध्यायों का विभाग नहीं है; किन्तु कथाओं का निर्देश 'रामकहा भण्णई' 'वारका भण्णइ' इत्यादि रूप से किया गया है । इस ग्रन्थ में रामायण की कथा विमलसूरि कृत 'पउमचरियं' के ही अनुसार है । जो थोड़ा-बहुत भेद यत्र-तत्र पाया जाता है, उसमें विशेष उल्लेखनीय सीता के निर्वासन का प्रसंग है । सीता गर्भवती है और उसे स्वप्न हुआ है कि वह दो पराक्रमी पुत्रों को जन्म देगी | सोता के इस सौभाग्य की बात से उसकी सपत्नियों को ईर्ष्या उत्पन्न होती है : उन्होंने सीता के साथ एक छल किया । उन्होंने सीता से रावण का चित्र बनाने का आग्रह किया । सीता ने यह कहते हुए कि मैंने उसके मुखादि अंग तो देखे नहीं, केवल उसके पैरों का चित्र बना दिया । इसे उन सपत्नियों ने राम को दिखाकर कहा कि सीता रावण में अनुरक्त हो गई है; और उसी की चरण-वंदना किया करती है। राम ने इस पर जब तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई; तब उन सपत्नियों ने जनता से यह अपवाद फैला दिया; जिसके परिणाम स्वरूप राम सीता का निर्वासन करने के लिये विवश हुए I रावण के चित्र का वृत्तान्त हेमचन्द्र ने अपने त्रिशष्टिशला कापुरुषचरित में भी निबद्ध किया है ।
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प्राकृत में तीर्थंकर चरित्र -
शीलांक कृत 'चउपन्न महापुरिसचरिय' के पश्चात् आगामी तीन चार शताब्दियों में नाना तीर्थकरों के चरित्र प्राकृत में कहीं पद्यात्मक, कहीं गद्यात्मक और कहीं मिश्रित रूप से काव्यशैली में लिखे गये । प्रथम तीर्थंकर ऋषभ नाथ पर अभयदेव के शिष्य वर्द्धमान सूरि ने सन् ११०३ ई० में ११००० श्लोक प्रमाण आदिणाहचरियं की रचना की । पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ का चरित्र १२ वीं शती के मध्य में विजयसिंह के शिष्य सोमतभ द्वारा लगभग ६००० गाथाओं में रचा गया । छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ का चरित्र देवसूरि द्वारा १३ वीं शती में रचा गया। सातवें तीर्थंकर पर लक्ष्मण गणिकृत 'सुपासणाह - परियं एक सुविस्तृत और उत्कृष्ट कोटि की रचना है, जो वि० सं० १९६६ में समाप्त हुई है । इसमें लगभग ७० पद्य अपभ्रंश के भी समाविष्ट पाये जाते हैं : आठवें तीर्थंकर
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