Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
१३८
जैन साहित्य
के उन्माद से उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया; और उसे अपना अन्तिम पाख्यान सुनाने की चुनौती दी । खंडपाना ने प्रसंग मिलाकर कहा कि उसके जो वस्त्र हवा में उड़ गये थे, व उसके चार नौकर भाग गये थे, आज उसकी पहचान में आ गये । तुम चारों वे ही मेरे सेवक हो; और मेरे उन्हीं वस्त्रों को पहने हुए हो । यदि यह सत्य है, तो मेरी चाकरी स्वीकार करो; और यदि यह असत्य है, तो सबको भोजन कराओ। तब सब धूर्तों ने उसे अपनी प्रधान नायिका स्वीकार कर लिया; और उसने स्वयं सब धूर्तों को भोजन कराना स्वीकार कर लिया। फिर वह श्मशान में गई और वहां से एक तत्काल मृतक बालक को लेकर नगर में पहूँची । एक धनी सेठ से उसने सहायता मांगी और उसे उत्तेजित कर दिया। उसके नौकरों द्वारा ताड़ित होने पर वह चिल्ला उठी कि मेरे पुत्र को तुम लोगों ने मार डाला । सेठ ने उसे धन देकर अपना पीछा छुड़ाया । उस धन से खंडपाना ने सब धूर्तो को आहार कराय।। यह रचना भारतीय साहित्य में अपने ढंग की अद्वितीय है; और पुराणों की अतिरंजित घटनाओं की व्यंग्यात्मक कड़ी आलोचना है । इसी के अनुकरण पर अपभ्रंश में हरिषेण और श्रुतकीर्ति कृत; तथा संस्कृत में अमितगति कृत धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थों की रचना हुई। (प्रका० बम्बई, १९४४)।
जिनेश्वर सूरि के शिष्य धनेश्वर सूरि कृत 'सुरसुन्दरी-चरियं' १६ परिच्छेदों में, तथा ४००० गाथाओं में समाप्त हुआ है। इसकी रचना चन्द्रावती नगरी में वि० सं० १०६५ में हुई थी। सुरसुदरी कुशाग्रपुर के राजा नरवाहनदत्त की पुत्री थी। वह पढ़लिखकर बड़ी विदुषी युवती हुई। बुद्धिला नामक परिवाजिका ने उसे नास्तिकता का पाठ पढ़ाना चाहा; किन्तु सुरसुन्दरी के तर्क से पराजित और रुष्ठ होकर उसने उज्जैन के राजा शत्रुजय को उसका चित्रपट दिखाकर उभाड़ा । शत्रुजय ने उसके पिता से विवाह की मांग की, जो अस्वीकार कर दी गई । इस कारण दोनों राजाओं में युद्ध छिड़गया । इसी बीच वैताढ्य पर्वत के एक खेचर ने सुरसुन्दरी का अपहरण कर लिया और उसे लेजाकर एक कदलीगृह में रक्खा । सुरसुन्दरी ने आत्मघात की इच्छा से विषफल का भक्षण किया। दैवयोग से उसी बीच उसका सच्चे प्रेमी मकरकेतु ने वहां पहुंच कर उसकी रक्षा की; तथा वहां से जाकर उसने शत्रुजय का भी वध किया। किन्तु एक वैरी विद्याधर ने स्वयं उसका अपहरण कर लिया। बड़ी कठिनाईयों और नाना घटनाओं के पश्चात् सुरसुन्दरी और मकरकेतु का पुनर्मिलन और विवाह हुआ। दीर्घ काल तक राज्य भोगकर दोनों ने दीक्षा ली एवं केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त किया। यथार्थतः नायिका का नाम व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org