Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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प्रथमानुयोग-प्राकृत
१२७ उत्कृष्ट शाििब्दक, तार्किक काव्यकृत और भव्यसहायक कहा गया है। इस स्तोत्र में भक्त के मन, वचन और काय को स्वस्थ और शुद्ध करनेवाले तीर्थंकर के गुणों की विशेष रूप से स्तुति की गई है। हे भगवन्, जो कोई आपके दर्शन करता है, वचन रूपी अमृत का भक्तिरूपी पात्रसे पान करता है, तथा कर्मरूपी मनसे आप जैसे असाधारण आनन्द के घाम, दुर्वार काम के मदहारी व प्रसाद की अद्वितीय भूमिरूप पुरुष में ध्यान द्वारा प्रवेश करता है, उसे क्रूराकार रोग
और कंटक कैसे सता सकते है ? हे देव, न आपमें कोप का आवेश हैं, और किसी के प्रति प्रसन्नता; एवं आपका चित्त परम उपेक्षा से व्याप्त है। इतने पर भी भुवन मात्र आपकी आज्ञा के वश है, और आपके सामीप्य मात्र से वैर का अपहार हो जाता है। ऐसा भुवनोत्कृष्ट प्रभाव आपको छोड़ कर और किसमें हैं ? इस स्तोत्र पर एक स्वोपज्ञ टीका, एक श्रुतसागर कृत टीका व एक अन्य टीका मिलती है, तथा जगत्कीर्ति कृत व्रतोद्यापन का भी उल्लेख मिलता
है।
इनके अतिरिक्त और भी अनेक स्तोत्र लिखे गये हैं, जिनकी संख्या सैकड़ों पर पहुंच जाती है, और जिनकी कुछ न कुछ छंद, शब्द-योजना, अलंकार व भक्तिभाव संबंधी अपनी अपनी विशेषता है। इनमें से कुछ के नाम ये हैं: (१) बप्पमट्टिकृत सरस्वती स्तोत्र (6वीं शती) (२) भूपालकृत जिनचतुर्विशतिका, (३) हेमचन्द्र कत वीतराग स्तोत्र (१३वीं शती), (४) आशाधर कत सिद्धगुण स्तोत्र (१३वीं शती) स्वोपज्ञ टीका सहित, (५) धर्मघोष कृत यमक स्तुति व चतुर्विशति जिनस्तुति (६) जिनप्रभ सूरि कृत चतुर्विशति जिनस्तुति (१४वीं शती,) (७) मुनिसुन्दर कृत जिन स्तोत्र रत्नकोष (१४वीं शती), (८) सोमतिलक कृत सर्वज्ञ स्तोत्र, (६) कुमारपाल, (१०) सोमप्रभ, (११) जयानंद, और (१२) रत्नाकर कृत पृथक् पृथक् ‘साधारण जिन स्तोत्र, (१३) जिन वल्लभ कृत नंदीश्वर स्तवन (१४) शन्तिचन्द्रगणि (१६वीं शती) कृत ऋषभजिनस्तव' व 'अजितशान्ति स्तव' आदि । धर्मसिंह कत सरस्वती भक्तामर स्तोत्र तथा भावरत्न कृत नेमिभक्तामर स्तोत्र विशेष उल्लेखनीय हैं, क्योंकि इनकी रचना भक्तामर स्तोत्र पर से समस्यापूर्ति प्रणाली द्वारा हुई है, और इनमें क्रमशः सरस्वती व नेमि तीर्थकर की स्तुति की गई है। प्रथमानुयोग--प्राकृत पुराण :
जैनागम के परिचय में कहा जा चुका है कि बारहवें श्रुतांग दृष्टिवाद के पांच भेदों में एक भेद प्रथमानुयोग था, जिसमें अरहंत व चक्रवर्ती प्रादि महापुरुषों का चरित्र वर्णन किया गया था। यही जैन कथा साहित्य का आदि
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