Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य अन्तिम भिन्न छंद के एक पद्य में इसके कर्ता का नाम कुमुदचन्द्र सूचित किया गया है, जिसे कुछ लोग सिद्धसेन' (लगभग ६ठी शती का ही दूसरा नाम मानते हैं । दूसरे पद्य के अनुसार यह २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति में रचा गया है । भक्तामर के सदृश होते हुए भी यह स्तोत्र अपनी काव्य कल्पनाओं व शब्द योजना में मौलिक ही है। हे जिनेन्द्र, आप उन भव्यों को संसार से कैसे पार कर देते हैं, जो अपने हृदय में आपका नाम धारण करते हैं ? हां जाना, जो एक मशक (दृति) भी जल में तैर कर निकल जाती है, वह इसके भीतर भरे हुए पवन का ही तो प्रभाव है। हे जिनेश, आपके ध्यान से भव्य पुरुष क्षणमात्र में देह को छोड़कर परमात्म दशा को प्राप्त हो जाते हैं; क्यों न हो, तीव्र अग्नि के प्रभाव से नाना धातुएं अपने पाषाण भाव को छोड़कर शुद्ध सुवर्णत्व को प्राप्त कर लेती हैं। इस स्तोत्र का भी डा० जैकोबी ने सम्पादन व जर्मन भाषा में अनुवाद किया है । भक्तामर स्तोत्र के समान इस पर भी कोई २०, २५ टीकाएं व छाया स्तोत्र पाये जाते हैं।
धनंजय ७वीं शती, ८वीं शती) कृत विषापहार स्तोत्र में ४० इन्द्रवज्रा छंद के पद्य हैं । अन्तिम पद्य का छंद भिन्न है, और उसमें कर्ता ने अपना नाम सूचित किया है। स्तोत्र के द्वितीय पद्य में इस स्तुति को प्रधम तीर्थकर वषभ की कहा गया है। इसमें अन्य देवों से पृथक करने वाले तीर्थकर के गुणों का वर्णन विशेष रूप से आया है । हे देव, जो यह कहकर आपका गुणानुवाद करते हैं कि आप अमुक के पुत्न हैं, अमुक के पिता हैं, व अमुक कुल के हैं, वे यथार्थतः अपने हाथ में आये हुए सुवर्ण को पत्थर समझकर फेंक देते हैं। हे देव, मैं यह स्तुति करके आपसे दीनता पूर्वक कोई वर नहीं मांगता हूं; क्योंकि आप उपेक्षा (मध्यस्थ भाव) रखते हैं। जो कोई छाया पूर्ण वृक्ष का आश्रय लेता है, उसे छाया अपने आप मिलती ही है, फिर छाया मांगने से लाभ क्या? और हे देव यदि आपको मुझे कुछ देने की इच्छा ही है, और उसके लिये अनुरोध भी, तो यही वरदान दीजिये कि मेरी आपमें भक्ति दढ़ बनी रहे । स्तोत्र का नाम उसके १४वें पद्य के आदि में आये हुए विषापहार शब्द पर से पड़ा है, जिसमें कहा गया है कि हे भगवन लोग विषापहार मणि, औषधियों, मंत्र और रसायन की खोज में भटकते फिरते हैं; वे यह नहीं जानते कि ये सब आपके ही पर्यायवाची नाम है । इस स्तोत्र पर नागचन्द्र और पार्श्वनाथ गोम्मट कृत टीकाएं हैं व एक अवचूरि तथा देवेन्द्रकीर्ति कृत विषापहार व्रतोद्यापन नामक रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं।
वादिराज (११वीं शती) कृत एकीभाव स्तोत्र में २६ पद्य मन्द्राक्रान्ता छन्द के हैं । अन्तिम भिन्न छन्दात्मक पद्य में कर्ता के नाम के साथ उन्हें एक
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