Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
देने योग्य है कि विषय की दृष्टि से इसका कुदकुद कृत मोक्षपाहुड से बहुत कुछ साम्य के अतिरिक्त उसकी अनेक गाथाओं का यहाँ शब्दशः अथवा किंचित् भेद सहित अनुवाद पाया जाता है, जैसा कि मोक्ष पा० गा० ५, ६, ८, ९, १०, ११, २६, ३१, ३२, ४२, व ६२ और समाधिशतक श्लोक ५, ६, ७, १०, ११, १२, १८, ७८, ४८, ८३, व १०२ का क्रमशः मिलान करने पर स्पष्ट पता लग जाता है।
. आचार्य हरिभद्र कृत षोडशक के १४ वें प्रकरण में १६ संस्कृत पद्यों में योग साधना में बाधक खेद, उद्धग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद, रुग्, और आसंग , इन आठ चित्त-दोषों का निरूपण किया गया है तथा १६ वें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी अद्वेष, जिज्ञासा,सुश्रूषा, श्रवण, बोध, मीमांसा, प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति इन आठ चित्तगुणों का निरूपण किया है; एवं योग साधना के द्वारा क्रमशः स्वानुभूति रूप परमानन्द की प्राप्ति का निरूपण किया गवा है ।
योगबिंदु में ५२७ संस्कृत पद्यों में जैनयोग का विस्तार से प्ररूपण किया गया है । यहाँ 'मोक्ष प्रापक धर्मव्यापार' को योग और मोक्ष को ही उसका, लक्ष्य बतलाकर, चरमपुद्गलपरावर्त काल में योग की सम्भावना, अपुनबर्धक भिन्नग्रथि, देशविरत और सर्वविरत (सम्यग्दृष्टि) ये चार योगाधिकारियों के स्तर, पूजा, सदाचार, तप आदि अनुष्ठान, अध्यात्म, भावना, ध्यान आदि योग के पाँच भेद; विष, गरलावि पांच प्रकार के सद् वा असद् अनुष्ठान, तथा आत्मा का स्वरुप परिणामी नित्य बतलाया गया है। और प्रसंगानुसार सांख्य, बौख, वेदान्त आदि दर्शनों का समालोचन भी किया गया है। पातंजल योगऔर बौख सम्मत योग भूमिकाओं के साथ जैन योग की तुलना विशेष उल्लेखनीय है । __ योगहष्टिसमुच्चय में २२७ संस्कृत पद्यों में कुछ योगबिंदु में वर्णित विषय की संक्षेप में पुनरावृत्ति की गई है, और कुछ नवीनता भी लाई गई है । यहां आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है, एक मित्रा, तारा, बला, दीप्रा स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा नामक आठ योग-द्दष्ठियों द्वारा, दूसरा इच्छायोग, शास्त्रयोग, सामर्थ य योग इन तीन प्रकार के योग-भेदों द्वारा; तथा तीसरा गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रमोगी और सिद्धयोगी इन चार योगी भेदों द्वारा । प्रथम वर्गीकरण में निर्दिष्ट आठ योगद्दष्टियों में ही १४ गुणस्थानों की योजना कर ली गई है। मुक्त तत्व की विस्तार से मीमांसा भी की गई है।
इन रचनाओं द्वारा हरिभद्र ने अपने विशेष चिन्तन, नवीन वर्गीकरण तथा अपूर्व पारिभाषिक शब्दावली द्वारा जैन परम्परा के योगात्मक विचारों को
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