Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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चरणानुयोग-ध्यान
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गया हैं । देह को कुटी या देवालय और आत्मा को शिव तथा इन्द्रिय-वृत्तियों का शक्ति रूप से सम्बोधन अनेक जगह आया है । शैली में यह रचना एक ओर बौद्ध दोहाकोशों और चर्यापदों से समानता रखती है; और दूसरी और कबीर जैसे संतों की वाणियों से । दो दोहों (88-१००) में देह और आत्मा अथवा आत्मा और परमात्मा का प्रेयसी और प्रेमी के रूपक में वर्णन किया गया है, जो पीछे के सूफी सम्प्रदाय की काव्य-धारा का स्मरण दिलाता हैं । इसके ४,५ दोहे अत्यल्प परिवर्तन के साथ हेमचन्द्र कृत प्राकृत व्याकरण में उद्धृत पाये जाते हैं । अतएव इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० ११०० से पूर्व सिद्ध होता है। (प्रकाशित कारंजा, १६३३)
ध्यान व योग संस्कृत :-कुदकुद के पश्चात् पूज्यपाद कृत योग विषयक दो संक्षिप्त संस्कृत रचनाएं उल्लेखनीय हैं । एक इष्टोपदेश है, जिसमें ५१ श्लोक हैं । यहाँ योग-साधक की उन भावनाओं का निरूपण किया गया है, जिनके द्वारा साधक अपनी इन्द्रियों को सांसारिक विषयों से पराड्-मुख करके मन को आत्मध्यान में प्रवृत्त करता है, तथा उसमें ऐसी अध्यात्मवृत्ति जागृत हो जाती है कि वह समस्त जगत् को इन्द्रजाल के समान देखने लगता है, एकान्तवास चाहता है, कार्यवश कुछ कहकर तुरन्त भूल जाता है, बोलता हुआ भी नहीं बोलता, चलता हुआ भी नहीं चलता, देखता हुआ भी नहीं देखता, यहाँ तक कि उसे स्वयं अपने देह का भी मान नहीं रहता (श्लाक० ३६.४२)। इस प्रकार व्यवहार से दूर हटकर व आत्मानुष्ठान में स्थित होकर योगी को परमानन्द प्राप्त होता है (श्लो० ४६) । इस योगावस्था का वर्णन जीवन्मुक्त की अवस्था से मेल खाता है । ।
पूज्यपाद की दूसरी रचना समाधिशतक है, जिसमें ६०५ संस्कृत श्लोक हैं । इसमें बहिरात्म, अन्तरात्म और परमात्म का स्वरूप बतलाकर, अन्तरात्मा द्वारा परमात्मा के ध्यान का स्वरूप बतलाया गया है। ध्यान-साधना में अविद्या, अभ्यास व संस्कार के कारण, अथवा मोहोत्पन्न रागद्वेष द्वारा चित्त में विक्षेप उत्पन्न होने पर साधक को प्रयत्न पूर्वक मन को खींचकर, आत्मतत्व में नियोजित करने का उपदेश दिया गया है । साधक को अव्रतों का त्याग कर व्रतों में निष्ठित होने, और आत्मपद प्राप्त करने पर उन व्रतों का भी त्याग करने को कहा गया है (श्लो० २३) लिंग तथा जाति का आग्रह करने वालों को यहां परमपद प्राप्ति के अयोग्य बतलाया है (श्लोक० ८६)। आत्मा अपने से मिन्न आत्मा की उपासना करके उसी के समान परमात्मा बन जाता है, जिस प्रकार कि एक बाती अन्य दीपक के पास से ज्वाला ग्रहण कर उसी के सदृश भिन्न दीपक बन जाती है (श्लोक० ०७) । इस रचना के सम्बन्ध में यह बात ध्यान
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