Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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चरणानुयोग-ध्यान
कहीं विस्तार से श्रमणों और श्रावकों के चारित्र संबंधी प्रायः सभी विषयों का निर्देश व निरूपण आ गया है। उनकी इन कृतियों का आगे की साहित्य रचनाओं पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा दिखाई देता है, और उनमें उक्त विषयों को लेकर पल्लवित किया गया है।
कत्तिगेयानुवेक्खा (कात्तिकेयानुप्रेक्षा) में ४६१ गाथाओं द्वारा उन्हीं बारह अनुप्रेक्षाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिनका संक्षिप्त निरूपण हमें कुन्दकुन्द के बारस अणुवेक्खा में प्राप्त होता है। किन्तु यहाँ उनका क्रम कुछ भिन्न प्रकार से पाया जाता है । यहाँ संसार भावना तीसरे, अशुचित्व छठे, और लोक दसवें स्थान में पाई जाती हैं। लोकानुप्रेक्षा का वर्णन ११५ से २८३ तक की १६६ गाथाओं में किया गया है। क्योंकि उसके भीतर समस्त त्रैलोक्य का स्वरूप और उनके निवासी जीवों का, जीवादि छह द्रव्यों का द्रव्यों से उत्पादादि पर्यायोंका तथा मति श्रुति आदि पांच ज्ञानों का भी प्रारूपण किया गया है, और इस प्रकार वह प्रकरण त्रिलोक-प्रज्ञप्ति का संक्षिप्त रूप बन गया है। उसी प्रकार धर्मानुप्रेक्षा का वर्णन गा• ३०२ से गा० ४६७ तक की १८६ गाथाओं में हुआ है, क्योंकि यहाँ श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाओं व बारह व्रतों का (गा० ३०५. ३६१), साधु के क्षमादि दश धर्मों का (गा० ३६२-४०४), सम्यक्त्व के आठ अंगों का (गा० ४१४-४२२) एवं अनशनादि बारह तपों का (गा० ४४१-४८७) वर्णन भी पर्याप्त रूप से किया गया है । बारह व्रतों के निरूपण में गुण और शिक्षावतों का क्रम वही है, जो कुन्दकुन्द के चारित्रपाहुड (गा० २५-२६) में पाया जाता है। भेद केवल इतना है कि यहाँ अंतिम शिक्षाबत सल्लेखना नहीं, किन्तु देशावकाशिक ग्रहण किया गया है। यह गुण और शिक्षाबतों की व्यवस्था त० सू० से संख्या कम से भिन्न है, और श्रावक-प्रज्ञप्ति की व्यवस्था से मेल खाता है। ग्रन्थ की अन्तिम तीन गाथाओं में कर्ता ने ग्रन्थ को समाप्त करते हुए केवल इतना ही कहा है कि स्वामिकुमार ने इन अनुप्रेक्षाओं की रचना परम श्रद्धा से, जिन-वचनों की भावना तया चंचल मन के अवरोध के लिये जिनागम के अनुसार की । अन्तिम गाथा में उन्होंने कुमारकाल में तपश्चरण धारण करने वाले वासुपूज्य, मल्लि और अन्तिम तीन अर्थात् नेमि, पार्श्व और महावीर की वन्दना की है । इस पर से ग्रन्थकर्ता के विषय में इतना ही परिचय प्राप्त होता है कि वे स्वयं (ब्रह्मचारी) थे और उनका नाम स्वामिकुमार (कात्तिकेय) था। ग्रन्थ के रचनाकाल के विषय में अभी कोई अनुमान लगाना कठिन है । ग्रन्थ पर मट्टारक शुभचन्द्र कृत संस्कृत टीका (वि० सं० १६१३-ई० १५५६) में समाप्त हुई प्राप्त होती है।
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