Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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चरणानुयोग-ध्यान
भेद-प्रभेद वणित पाये जाते हैं । इस आगम-प्रणाली के अनुसार ध्यान का निरूपण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अपनी ध्यानशतक नामक रचना में किया है।
. वैदिक परम्परा में ध्यान का निरूपण योग दर्शन के भीतर पाया जाता है, जिसके आदि संस्थापक महर्षि पतञ्जलि (ई० पू० द्वितीय शताब्दी) माने जाते हैं । पातंजल योगसूत्र' में जो योग का लक्षण 'चित्तवृत्तिनिरोध' किया है और उसके प्रथम अंग यम के अहिंसादि पांच भेद बतलाये है, इससे उस पर श्रमण परम्परा की संयम विधि की छाप स्पष्ट दिखाई देती हैं । अष्टांग योग का सातवां अंग ध्यान है जिसके द्वारा मुनि अपने चित्त को बाह्य विषयों से खींचकर आत्मचिन्तन में लगाने का प्रयत्न करता है। इस प्रक्रिया का योग नाम से उल्लेख हमें कुन्दकुन्द कृत मोक्ष पाहुड में मिलता है ।
मोक्षपाहुड (गाथा १०६) में कुन्दकुन्द ने आदि में ही अपनी कृति को परम योगियों के उस परमात्मारूप परमपद का व्याख्यान करने वाली कहा है, जिसको जानकर तथा निरन्तर अपनी साधना में योजित करके योगी अव्याबाध, अनन्त और अनुपम निर्वाण को प्राप्त करता है (गा० २-३) । यहाँ आत्मा के बहिः, अन्तर और परम ये तीन भेद किये हैं, जिनके क्रमशः इन्द्रिय परायणता, आत्म चेतना और कर्मों से मुक्ति, ये लक्षण है (गा.५) । परद्रव्य में रति मिथ्यादृष्टि है और उससे जीव के दुर्गति होती है; एवं स्व-द्रव्य (आत्मा) में रति सद्गति का कारण है । स्व-द्रव्य-रत श्रमण नियम से सम्यग्दृष्टि होता है। तप से केवल स्वर्ग ही प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु शाश्वत सुख रूप निर्वाण की प्राप्ति ध्यान योग से ही सम्भव है (गा. २३) । कषायों, मान, मद राग-द्वेष, व्यामोह एव समस्त लोक-व्यवहार से मुक्त और विरक्त होकर आत्मध्यान में प्रवृत्त हुआ जा सकता है (गा. २७) । साधक को मन, वचन, काय से मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य और पाप का परित्याग कर मौनव्रत धारण करना चाहिये (गा. २८) । योग की अवस्था में समस्त आस्रवों का निरोध होकर संचित कर्मों का क्षय होने लगता है (गा. ३०)। लोक व्यवहार के प्रति सुषुप्ति होने पर ही आत्मजागृति होती है (गा. ३१) । पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति और रत्नत्रय से युक्त होकर मुनि को सदैव ध्यान का अभ्यास करना चाहिये (गा. ३३) । तभी वह सच्चा आराधक बनता है, आराधना के विधान को साध सकता है और आराधना का केवल ज्ञान रूप फल प्राप्त कर सकता है (गा. ३४) । किन्तु कितने ही साधक आत्मज्ञानी होकर भी पुनः विषयविमोहित होकर सद्भाव से भ्रष्ट हो जाते हैं । जो विषय-विरक्त बने रहते हैं, वे चतुर्गति से मुक्त हो जाते हैं (गा. ६७-६८) । सम्यक्त्वहीन, चारित्रहीन
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