Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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करणानुयोग
घूमा करता है जिसके अनुसार सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा दुषमा और दुषमा-दुषमा ये छह अवसर्पिणी के, और ये ही विपरीत क्रम से उत्सर्पिणी के आरे होते हैं । प्रथम तीन आरों के काल में भोगभूमि की रचना रहती है, जिसमें मनुष्य अपनी अन्न वस्त्र आदि समस्त आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों से ही पूरी करते हैं, और वे कृषि आदि उद्योग व्यवसायों से अनभिज्ञ रहते हैं । सुषमा दुषमा काल के अन्तिम भाग में क्रमशः भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त होती और कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ होती है । उस समय कर्मभूमि सम्बन्धी युगधर्मों को समझाने वाले क्रमशः चौदह कुलकर होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी के सुषमा-दुषमा काल के अन्त में प्रतिश्र ति, सन्मति क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अमिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजीत, औरना भिराज, इन चौदह कुलकरों और विशेषतः अंतिम कुलकर नाभिराज ने असि, मसि, कृषि, विद्या वाणिज्य, शिल्प और उद्योग, इन षट्कर्मो की व्यवस्थाएँ निर्माण की । इनके पश्चात् ऋषभ आदि २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव ६ वासुदेव, और ६ प्रति-वासुदेव ये ६३ शलाका पुरुष दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में हुए । अंतिम तीर्थकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् पंचम काल दुषम प्रारम्भ हुआ, जो वर्तमान में चल रहा है । यही सामान्य रूप से करणानुयोग के ग्रन्थों में वर्णित विषयों का संक्षिप्त परिचय है। किन्हीं ग्रथों में यह सम्पूर्ण विषयवर्णन किया गया है, और किन्हीं में इसमें से कोई । किन्तु विशेषता यह है कि इनके विषय के प्रतिपादन में गणित की प्रक्रियाओं का प्रयोग किया गया है, जिससे ये ग्रन्थ प्राचीन गणित के सूत्रों, और उनके क्रम-विकास को समझने में बड़े सहायक होते हैं। इस विषय के मुख्य ग्रन्थ निम्न प्रकार हैं -
दिग• परम्परा में इस विषय का प्रथम ग्रन्थ लोकविभाग प्रतीत होता है । यद्यपि यह मूलग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, तथापि इसके पश्चात् कालीन संस्कृत पद्यात्मक रूपान्तर सिंहसूरि कृत लोक विभाग में मिलता है । सिंहसूरि ने अपनी प्रशस्ति में स्पष्ट कहा है कि तीर्थकर महावीर ने जगत् का जो विधान बतलाया उसे सुधर्म स्वामी आदि ने जाना, और वही आचार्य परम्परा से प्राप्त कर सिंहसूरि ऋषि ने भाषा का परिवर्तन करके रचा। जिस मूलग्रन्थ का उन्होंने यह भाषा परिवर्तन किया, उसका भी उन्होंने यह परिचय दिया है कि वह ग्रन्थ कांची नरेश सिंहवर्मा के बाइसवें संवत्सर, तदनुसार शक के ३८० वें वर्ष में सर्वनंदि मुनि ने पांड्य राष्ट्र के पाटलिक ग्राम में लिखा था । इतिहास से सिद्ध है कि शक संवत् ३८. में पल्लववंशी राजा सिंहवर्मा राज्य करते थे, और उनकी राजधानी कांची थी । यह मूल ग्रन्थ अनुमानतः प्राकृत में ही रहा होगा।
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