Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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चरणानुयोग-मुनिधर्म
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का इस बात पर दृष्टान्त दिया गया है कि वह दश पूर्वो का ज्ञाता होकर भी विषयों की लोलुपता के कारण नरक्रगामी हुआ (गा० ३०-३१)। व्याकरण, छंद, वैशेषिक, व्यवहार तथा न्यायशास्त्र के ज्ञान की सार्थकता तभी बतलाई है जब उसके साथ शील भी हो (गा० १६)। शील की पूर्णता सम्यगदर्शन के के साथ ज्ञान, ध्यान, योग, विषयों से विरक्ति और तप के साधन में भी बतलाई गई है। इसी शीलरूपी जल से स्नान करने वाले सिद्धालय को जाते हैं (गा० ३७-३८)।
कुदकुद की उक्त रचनाओं में से बारह अणुवेक्खा तथा लिंग और शील पाहुडों को छोड़, शेष पर टीकार्य भी मिलती हैं। बर्शन आदि छह पाहुडों पर श्रुतसागर कृत संस्कृत टीका उपलब्ध है। इन्हीं की एकत्र प्रतियां पाये जाने से उनका सामूहिक नाम षट् प्राभूत (छप्पाहुड) भी प्रसिद्ध हो गया है। श्रलसागर देवेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य तथा विद्यानन्द के शिष्य थे। अत: उनका काल ई० सन् कने १५-१६वीं शती सिद्ध होता है । ____रयणसार : (गा० १६२) में श्रात्रक और मुनि के आचार का वर्णन किया यया है। आदि में सम्यग्दर्शन की आवश्यकता बतला कर उसके ७० गुणों और ४४ दोषों का निर्देश किया गया है (गा. ७-८)। दान और पूजा गृहस्थ के लिये, तथा ध्यान और स्वाध्याय मुनि के लिये आवश्यक बतलाये गये हैं (गा० ११ आदि); तथा सुपात्रदान की महिमा बतलाई गई है (गा० १७ आदि)। आगे अशुभ और शुभ भावों का निरूपण किया है । गुरूभक्ति पर जोर दिया गया है, तथा आत्म तत्व की प्राप्ति के लिये श्रु ताभ्यास करने का आदेश दिया गया है, आगे स्वेच्छाचारी मुनियों की निंदा की गई है, व बहिरारम भाव से बचने का उपदेश दिया गया है। अन्त में गणगच्छ को ही रत्नत्रय रूप, संघ को ही नाना गुण रूप, और शुद्धात्मा को ही समय कहा गया है । इस पाहुड का अभी तक सावधानी से सम्पादन नहीं हुआ। उसके बीच में एक दोहा व छह पद्य अपभ्रश भाषा में पाये जाते हैं; या तो ये प्रक्षिप्त हैं, या फिर यह रचना कुन्दकुन्द कृत न होकर किसी उत्तरकालीन लेखक की कृति है। गण-गच्छ आदि के उल्लेख भी उसको अपेक्षाकृत पीछे की रचना सिद्ध करते
वट्टकेर स्वामी कृत मूलाचार दिगम्बर सम्प्रदाय में मुनिधर्म के लिये स:परि प्रमाण माना जाता है। कहीं कहीं यह ग्रंथ कुदाकुदाचार्य कृत भी काहा गया है। यद्यपि यह बात सिद्ध नहीं होती, तथापि उससे इस ग्रंथ के प्रति समाज का महान् आदरभाव प्रकट होता है। धवलाकार वीरसेन ने इसे आचारांग नाम से उद्धृत किया हैं। इसमें कुल १२४३ गाथाएं हैं, जो मूलगूण,
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