Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
गुरु
सूत्र
से भव्यों के लिये रचा । ग्रंथ के आदि में उन्होंने यह भी कहा है कि विपुला - चल पर्वत पर इन्द्रभूति ने जो श्रेणिक को उपदेश दिया था, उसी को परिपाटी से कहे जाने वाले इस ग्रंथ को सुनिये । इस प्रसंग में यह ध्यान देने योग्य है कि द्वादशांगान्तर्गत सातवें श्रुताँग 'उपासक दशा' में हमें श्रावक की इन्हीं ग्यारह प्रतिमाओं का प्ररूपण मिलता है । भेद यह है कि यह वहाँ विषय आनंद श्रावक के कथानक के अन्तर्गत आया है, और यहाँ स्वतन्त्र रूप से । इसमें की २५-३०१ तक की, तथा इससे पूर्व की अन्य कुछ गाथाएं श्रावक प्रतिक्रमण से ज्यों की त्यों मिलती हैं । कुन्द कुन्दाचार्य कृत चारित्र पाहुड ( गाथा २२ ) में ग्यारह प्रतिमाओं के नाम मात्र उल्लिखित हैं । उनका कुछ विस्तार से वर्णन कार्तिकेयानुप्रेक्षा की ३०५-३१० तक ८६ गाथाओं में किया गया है । इन सब से भिन्न वसुनंदि ने विशेषता यह उत्पन्न की है कि उन्होंने निशिभोजन त्याग को प्रथम दर्शन प्रतिमा में ही आवश्यक बतलाकर छठवीं प्रतिमा में उसके स्थान पर दिवा - ब्रह्मचर्य का विधान किया है । ग्रंथ की रचना का काल निश्चित नहीं है, तथापि इस ग्रंथ की अनेक गाथाएं देवसेन कृत भावसंग्रह के आधार से लिखी गई प्रतीत होती हैं, जिससे इसकी रचना की पूर्वावधि वि० सं० ( ई० ९३३) अनुमान की जा सकती हैं। आशाधरकृत सागार - धर्मामृत टीका में वसुनंदि का स्पष्ट उल्लेख किया गया है । जिससे उनके काल की उत्तरावधि वि० सं० १२९६ ( ई० १२३६ ) सिद्ध होती है । इन्हीं सीमाओं के बीच सम्भवत: ११ वीं १२वीं शती में यह ग्रंथ लिखा गया होगा ।
अपभ्रंश में श्रावकाचार विषयक ग्रंथ 'सावयधम्मदोहा' है । इसमें २२४ दोहों द्वारा श्रावकों की ग्यारह प्रतिमानों व बारह व्रतों का स्वरूप समझाया गया है । बारह व्रतों के नाम कुरंदकुद के अनुसार हैं, जिनमें देशव्रत सम्मिलित न होकर सल्लेखना का समावेश है । सप्तव्यसनों, अभक्ष्यों एवं कुसंगति, अन्याय, चुगलखोरी, झूठे व्यापार आदि दुर्गुणों के परित्याग का उपदेश दिया गया है । शैली बड़ी सरल, सुन्दर, व काव्य गुणात्मक है । प्रायः प्रत्येक दोहे की एक पंक्ति में धर्मोपदेश और दूसरी में उसका कोई सुन्दर, हृदय में चुभने वाला दृष्टान्त दिया गया है । इस ग्रन्थ के कर्तृत्व के सम्बन्ध में कुछ विवाद है । प्रकाशित ग्रंथ (कारंजा १६३२ ) की भूमिका में उहापोह पूर्वक इसके कर्ता दसवी शताब्दी में हुए देवसेन को सिख किया गया है । किन्तु कुछ हस्तलिखित प्राचीन प्रतियों में इसे योगीन्द्र कृत भी कहा गया है, और कुछ में लक्ष्मीचन्द्र कूत श्रुतसागर कृत षट्पाहुड टीका में इस ग्रन्थ के कुछ दोहे उद्धृत पाये जाते हैं जिन्हें लक्ष्मीचन्द्र कृत कहा गया है । यदि पूर्ण ग्रन्थ के कतर्ता लक्ष्मीचन्द्र हैं
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