Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
अभिहितः' । उमास्वाति कृत श्रावक प्रज्ञप्ति का उल्लेख यशोविजय के धर्मसंग्रह तथा मुनिचन्द्रसूरि कृत धर्मबिंदु-टीका में बारहवें वृत के संबंध में आया है । किन्तु स्वयं अभयदेवसूरि ने हरिभद्रसूरि कृत पंचाशक की ही वृत्ति में प्रस्तुत गृथ की संपत्तदंसणाइ-आदि दूसरी गाथा को हरिभद्रसूरि के ही निर्देशपूर्वक उद्धृत किया है। इससे प्रतीत होता है कि प्रस्तुत प्राकृत ग्रन्थ तो हरिभद्रकृत ही है। यदि उमास्वाति कृत कोई श्रावक-प्रज्ञप्ति रही हो तो संभव है कि वह संस्कृत में रही होगी। यही बात प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तः परीक्षण से भी सिद्ध होती है । इस ग्रंथ में २८० से ३२८ गाथाओं के बीच जो गुणवत और शिक्षाव्रतों का निर्देश और क्रम पाया जाता है वह त० सूत्र के ७,२१ में निर्दिष्ट क्रम से भिन्न है। त० सूत्र में दिग्, देश और अनर्थ दंड, ये तीन गुणवत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग-परिमाण और अतिथि-संविभाग, ये चार शिक्षाव्रत निर्दिष्ट किये हैं। परन्तु यहाँ दिग्वत, भोगोपभोग-परिमाण और अनर्थदंडविरति ये गुणव्रत, तथा सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाब्रत बतलाये हैं, जो हरिभद्रकत समराइच्चकहा के प्रथम भव में वर्णित व्रतों के क्रम से ठीक मिलते हैं। यही नहीं, किन्तु समराइच्चकहा का उक्त समस्त प्रकरण श्रावक-प्रज्ञप्ति के प्ररूपण से बहुत समानता रखता है, यहाँ तक कि सम्यक्त्वोत्पत्ति के संबंध में जिस घंसणघोलन निमित्त का उल्लेख श्रा० प्र० की ३१ वी गाथा में हैं, वही स० कहा के सम्यक्त्वोत्पत्ति प्रकरण में भी प्राकृत गद्य में प्रायः ज्यों का त्यों मिलता है। इससे यही सिद्ध होता है कि यह कृति हरिभद्रकृत ही है। इस पर उन्हीं की संस्कृत में स्वोपज्ञ टीका भी उपलभ्य है।
__श्रावकधर्म का प्रारम्भ सम्यक्त्व की प्राप्ति से होता है, और श्रावकप्रज्ञप्ति के आदि (गाथा २) में ही श्रावक का लक्षण यह बतलाया है कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्त करके प्रतिदिन यतिजनों के पास से सदाचारात्मक उपदेश सुनता है, वही श्रावक होता है । तत्पश्चात् सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति को विधिवत समझाया गया है । हरिभद्र की एक अन्य कृति वंसणसतरि अपर नाम 'सम्मत्त-सत्तरि' या 'दंसण-सुद्धि' में भी ७९ गाथाओं द्वारा सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझाया गया है । इस पर संघतिलक सूरि (१४ वीं शती) कृत टीका उपलभ्य है (प्रकाशित १६१६) । हरिभद्र की एक और प्राकृत रचना साबयधम्मविहि नामक है जिसमों १२० गाथाओं द्वारा श्रावकाचार का वर्णन किया गया है । इस पर मानदेवसूरि कृत विवृत्ति है (भावनगर १९२४) । हरिभद्रकृत १६ प्रकरण ऐसे हैं, जिनमें प्रत्येक में ५० गायाएं हैं, अतएव जो समष्टि रूप
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