Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
कल्कि, शक व विक्रम काल गणना, दशनिन्हव, ८४ लाख योनियां व सिद्ध, इस प्रकार नाना विषयों का वर्णन है । इस पर माणिक्यसागर कृत संस्कृत छायाः उपलभ्य है। (आ० स० भावनगर, १९८३) ।
उक्त समस्त रचनाओं से संभवतः प्राचीन 'ज्योतिषकरंडक' नामक ग्रन्थ है जिसे मुद्रित प्रति में 'पूर्वभूद् वालभ्य प्राचीनतराचार्य कृत' कहा गया है (प्र० रतलाम १६२८) । इस पर पादलिप्त सूरि कृत टीका का भी उल्लेख मिलता है। उपलभ्य ज्योतिषकरंडक प्रकीर्णक में ३७६ गाथाएं हैं, जिनकी भाषा व शैली जैन महाराष्ट्री प्राकृत रचनाओं से मिलती है । ग्रन्थ के आदि में कहा गया है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में जो विषय विस्तार से वर्णित है उसको यहाँ संक्षेप से पृथक् उद्धत किया जाता है । ग्रन्थ में कालप्रमाण, मान, अधिकमास-निष्पत्ति तिथि-निष्पत्ति, ओमरत्त (हीनरात्रि) नक्षत्र परिमाण, चन्द्र-सूर्य-परिमाण, नक्षत्र चन्द्र-सूर्य गति, नक्षत्रयोग, मंडलविभाग, अयन आवृत्ति, मुहूर्तगति, ऋतु, विषुवत (अहोरात्रि- समत्व), व्यतिपात, ताप,दिवसवृद्धि, अमावस-पौर्णमासी, प्रनष्टपर्व और पौरूषी, ये इक्कीस पाहुड हैं।
संस्कृत और अपभ्रंश के पुराणों में, जैसे हरिवंशपुराण, महापुराण,त्रिशष्ठि शलाकापुरुष चरित्र, तिसट्ठिदहापुरिसगुणालंकार में भी त्रैलोक्य का वर्णन पाया जाता है । विशेषतः जिनसेन कृत संस्कत हरिवंशपुराण (८ वीं शती) इसके लिये प्राचीनता व विषय विस्तार की दृष्टि से उल्लेखनीय है । इसके चौथे से सातवें सर्ग तक क्रमशः अधोलोक, तिर्यग्लोक, ऊछलोक और काल का विशद वर्णन किया गया है, जो प्रायः तिलोय-पण्णत्ति से मेल खाता है। चरणानुयोग-साहित्य
जैन साहित्य के चरणानुयोग विभाग में वे ग्रन्थ आते हैं जिनमें आचार धर्म का प्रतिपादन किया गया है । हम ऊपर देख चुके हैं कि द्वादशांग आगम के भीतर ही प्रथम आचारांग में मुनिधर्म कातथा सातवें अंग उपासकाध्ययन में गृहस्थों के आचार का वर्णन किया गया है। पश्चात्कालीन साहित्य में इन दोनों प्रकार के आचार पर नाना ग्रन्थ लिखे गये। मुनिआचार-प्राकृत
सर्वप्रथम कुन्दाकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में हमें मुनि और श्रावक सम्बन्धी आचार का भिन्न-भिन्न निरूपण प्राप्त होता है। उनके प्रवचनसार का तृतीय श्रुतस्कंध यथार्थतः मुनित्राचार सम्बन्धी एक स्वतंत्र रचना है जो सिद्धों, तीर्थकरो और श्रमणों के नमस्कारपूर्वक श्रामण्य का निरूपण करता है। यहाँ ७५
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