Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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करणानुयोग
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भवन व्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक और नर-तियक्लोक ये छह अधिकार पाये जाते हैं । विषय वर्णन प्रायः त्रिलोक प्रज्ञप्ति के अनुसार संक्षिप्त रूप से किया गया है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० ११ वीं शती है।
पद्मनंदि मुनि कृत जम्बूद्वीपवपणत्ति में २३८६ प्राकृत गाथाएं हैं और रचना तिलोय पण्णति के आधार से हुई स्पष्ट प्रतीत होती है। इसके तेरह उद्देश्य निम्न प्रकार हैं:- उपोद्घात, भरत-एरावत वर्ष; शैल-नंदी-भोगभूमि; सुदर्शन मेरु,मंदर जिनभवन, देवोत्तरकुरु, कक्षाविजय, पूर्व विदेह, अपर विदेह, लवण समुद्र, द्वीप सागर-अधः-ऊर्ध्व-सिद्धलोक, ज्योतिर्लोक और प्रमाण परिच्छेद ग्रन्थ के अन्त में कर्ता ने बतलाया है कि उन्होंने जिनागम को ऋषि विजय गुरु के समीप सुनकर उन्हीं के प्रसाद से यह रचना माघनंदि, के प्रशिष्य तथा सकलचन्द्र के शिष्य श्रीनदि गुरु के निमित्त की। उन्होंने स्वयं अपने को वीरनंदि के प्रशिष्य व बलनंदि के शिष्य कहा है; तथा ग्रन्थ रचना का स्थान परियात्र देश के अन्तर्गत वारानगर और वहाँ के राजा संति या सत्ति का उल्लेख किया है ।
श्वे. परम्परा में इस विषय की आगमान्तर्गत सूर्य, चन्द्र व जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तियों के अतिरिक्त जिनभद्रगणि कुत दो रचनाएं क्षेत्रसमास और संग्रहणी उल्लेखनीय हैं । इन दोनों रचनाओं के परिमाण में क्रमश: बहुत परिवर्द्धन हुआ है, और उनके लघु और वृहद् रूप संस्करण टीकाकारों ने प्रस्तुत किये हैं, उपलभ्य वृहत्क्षेत्रमास, अपरनाम त्रैलोप्यदीपिका, में ६५६ गाथाएं हैं, जो इन पांच अधिकारों में विभाजित हैं- जम्बूद्वीप, लवणोदधि, धातकीखंड, कालोदधि और पुष्कराद्ध । इस प्रकार इसमें मनुष्य लोक मात्र का वर्णन है । उपलभ्य वृहत्संग्रहणी के संकलनकर्ता मलधारी हेमचन्द्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि (१२ वीं शती) हैं। इसमें ३४६ गाथाएं हैं, जो देव, नरक, मनुष्य, और तिर्यच, इन चार गति नामक अधिकारों में, तथा उनके नाना विकल्पों एवं स्थिति, अवगाहना आदि के प्ररूपक नाना द्वारों में विभाजित है। यहां लोकों की अपेक्षा उनमें रहने वाले जीवों का ही अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है। एक लघुक्षेत्रमास रत्मशेखर सूरि (१४ वीं शती, कृत २६२ गाथाओं में तथा वृहत्क्षेत्र समास सोमतिलक सूरि (१४ वीं शती) कृत ४८६ गाथाओं में, भी पाये जाते हैं । इनमें भी अढ़ाई द्वीप प्रमाण मनुष्य-लोक का वर्णन है । विचारसार-प्रकरण के कर्ता देवसूरि के शिष्य प्रद्युम्नसूरि (१३ वीं शती)हैं । इसमें ६०० गाथाओं द्वारा कर्मभूमि, भोगभूमि, आर्य व अनार्य देश, राजधानियां, तीर्थंकरों के पूर्वभव, माता-पिता, स्वप्न, जन्म आदि एवं समवशरण, गणधर, अष्टमहाप्रातिहार्य
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