Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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शौरसेनी जैनागम
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मूल शतक अथवा उसकी भाष्य-गाथाओं का संकलन गोम्मटसार पर से किया गया है। इसी पंचसंग्रह के आधार से अमितगति ने संस्कृत श्लोकबद्ध पंचसंग्रह की रचना की, जो उसकी प्रशस्ति के अनुसार वि० सं० १०७३ (ई. सन् १०१६) में मसूरिकापुर नामक स्थान में समाप्त हुई। इसमें पांचों अधिकारों के नाम पूर्वाक्त ही हैं, तथा दृष्टिवाद और कर्मप्रवाद के उल्लेख ठीक पूर्वोक्त प्रकार से ही भाये हैं । यदि हम इसका प्राधार प्राकृत पंचसंग्रह को न माने तो यहां शतक और सप्तति नामक अधिकारों की कोई सार्थकता ही सिद्ध नहीं होती, क्योंकि इनमें श्लोक-संख्या उससे बहुत अधिक पाई जाती है। किन्तु जब संस्कृत रूपान्तकार ने अधिकारों के नाम वे ही रखे हैं, तब उन्होंने भी मूल और भाष्य आधारित श्लोकों को अलग अलग रखा हो तो आश्चर्य नहीं । प्राकृत मूल और भाष्य को सन्मुख रखकर, संभव है श्लोकों का उक्त प्रकार पृथकत्व किया जा सके।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी एक प्राकृत पंचसंग्रह पाया जाता है। जिसके कर्ता पार्श्वर्षि के शिष्य चंद्रर्षि हैं। उनका काल छठी शती अनुमान किया जाता है । इस ग्रन्थ में ६६३ गाथायें हैं जो शतक, सप्तति, कषायपाहुड, षट्कर्म और कर्मप्रकृति नामक पांच द्वारों में विभाजित हैं। ग्रन्थ पर मलयगिरि की टीका उपलब्ध है।
शिवशर्म कृत कर्म प्रकृति (कम्मपयडि) में ४१५ गाथाएं हैं और वे बंधन, संक्रमण उद्वर्तन, अपवर्तन उदीरणा, उपशमना, उदय और सत्ता इन आठ करणों (अध्यायों) में विभाजित हैं। इस पर एक चूर्णि तथा मलयागिरि और यशोविजय की टीकाएं उपलब्ध हैं।
शिवशमं की दूसरी रचना शतक नामक भी है । गर्गषि कृत कर्मविपाक (कम्मविवाग) तथा जिनवल्लभगणि कृत षडशीति (सड सीइ) एवं कर्मस्तव (कम्मत्थव) बंधस्वामित्व (सामित्त) और सप्ततिका (सत्तरी) अनिश्चित कर्ताओं की उपलब्ध हैं, जिनमें कर्म सिद्धान्त के भिन्न-भिन्न प्रकरणों का अतिसंक्षेप में सुव्यवस्थित वर्णन किया गया है। ये छहों रचनाएं प्राचीन कर्मग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं और उन पर नाना कर्ताओं की चूणि, भाष्य, वृत्ति, टिप्पण मादि रूप टीकाएं पाई जाती हैं । सत्तरी पर अभयदेव सूरि कृत भाष्य तथा मेरुतुग की वृत्ति (१४ वीं शती) उपलब्ध हैं।
ईस्वी की १३ वीं शती में जगच्चन्द्र सूरि के शिष्य देवेन्द्र सूरि ने कर्मविपाक (गा०६०), कर्मस्तव (गा० ३४), बंधस्वामित्व (गा० २४), षडशीति (गा० ८६) और शतक (गा० १००), इन पांच ग्रन्थों की रचना की, जो नये कर्मग्रन्थों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन पर उन्होंने स्वयं विवरण भी लिखा है।
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