Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
View full book text
________________
८२
जैन साहित्य
छठा नव्य कर्मग्रन्थ प्रकृति बंध विषयक ७२ गाथाओं में लिखा गया है, जिसके कर्ता के विषय में अनिश्चय है। इस पर मलयगिरिकत टोका मिलती है।
जिनभद्र गणी कत विशेषणवती (६वीं शती) में ४०० गाथाओं द्वारा दर्शन, जीव, अजीव आदि नाना प्रकार से द्रव्य-प्ररूपण किया गया है।
जिनवल्लमसूरि कृत सार्धशतक का दूसरा नाम 'सूक्ष्मार्थ विचारसार' है जिसमें सिद्धान्त के कुछ विषयों पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है । इस पर एक भाष्य मूनिचन्द्र कृत चूर्णि तथा हरिभद्र, धनेश्वर और चक्रेश्वर कृत चूणियों के उल्लेख मिलते हैं । मूल रचना का काल लगभग ११०० ईस्वी पाया जाता
जीवसमास नामक एक प्राचीन रचना २८६ गाथाओं में पूर्ण हुई, और उसमें सत्, संख्या आदि सात प्ररूपणाओं द्वारा जीवादि द्रव्यों का स्वरूप समझाया गया है । इस ग्रन्थ पर एक वृहद् वृत्ति मिलती है, जो मलधारी हेमचन्द्र द्वारा ११०७ ईस्वी में लिखी गई ७००० श्लोक प्रमाण है।
जैन सिद्धान्त में वचन और काय योग के भेद-प्रभेदों का वर्णन आता है गोम्मटसारादि रचनाओं में यह पाया जाता है। यशोविजय उपाध्याय (१८वींशती) ने अपने भाषारहस्य-प्रकरण की १०१ गाथाओं में द्रव्य व भाव-आत्मक भाषा के स्वरूप तथा सत्यभाषा के जनपद-सत्या, सम्मत-सत्या, नामसत्या आदि दश भेदों का निरूपण किया है।
षट्खंडागम सूत्रों की रचना के काल में ही गुणधर आचार्य द्वारा कसायपाहुड की रचना हुई । यथार्थतः कहा नहीं जा सकता कि धरसेन और गुणधर आचार्यों में कौन पहले और कौन पीछे हुए। श्रु तावतार के कर्ता ने स्पष्ट कह दिया है कि इन आचार्यों की पूर्वोपर परम्परा का उन्हें कोई प्रमाण नहीं मिल सका। कसायपाहुड की रचना षट्खंडागम के समान सूत्र रूप नहीं, किन्तु पद्यबद्ध है । इसमें २३३ मूल गाथाएं हैं, जिनका विषय कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ के स्वरूप का विवेचन और उनके कर्मबंध में कारणीभूत होने की प्रत्रिया का विवरण करना है। ये चारों कषाय पुनः दो वर्गों में विभाजित होते हैं-प्रेयस् (राग) और द्वेष, और इसी कारण ग्रन्थ का दूसरा नाम पेज्जदोस पाहुड पाया जाता है। इस पाहुड को आर्यमंक्षु और नागहस्ति से सीखकर, यतिवृषभाचार्य ने उस पर छह हजार श्लोक प्रमाण व तिसूत्र लिखे, जिन्हें उच्चारणाचार्य ने पुनः पल्लवित किया। इन पर वीरसेनाचार्य ने अपनी जयधवला टीका लिखी। इसे वे बीस हजार श्लोक प्रमाण लिखकर स्वर्गवासी हो गये; तब उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर उसे पूरा किया। यह रचना शक सं० ७५६ (ई०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org