Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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न्याय
न्याय शैलियों का स्फुटरूप से उल्लेख व प्रतिपादन तो जैन साहित्य में आदि से ही यत्र तत्र आया है, तथापि इस विषय के स्वतंत्र ग्रन्थ चौथी पांचवी शताब्दी से रचे गये मिलते हैं । जैन न्यायका प्राकृत में प्रतिपादन करने वाला सर्व प्रथम ग्रन्थ सिद्धसेन कृत 'सम्भइ सुत्त' (सन्मति या सम्मति तर्क) या सन्मति प्रकरण है | सन्मति - तर्क को तत्वार्थसूत्र के समान ही दिग० श्वे० दोनों सम्प्रदायों के आचार्यों ने प्रमाण रूप से स्वीकृत किया है । षट्खंडागम की धवला टीका में इसके उल्लेख व उद्धरण मिलते हैं, तथा वादिराज ने अपने पार्श्वनाथचरित (शक ९४७) में इसका व संभवतः उस पर सन्मति ( सुमतिदेव ) कृतविवृति का उल्लेख किया है । इसका रचना काल चौथी - पांचवी शताब्दी ई० है । इसमें तीन कांड हैं, जिनमें क्रमशः ५४, ४३ और ६६ या ७० गाथाएं हैं । इस पर अभयदेव कृत २५००० श्लोक प्रमाण 'तत्वबोध विधायिनी' नामकी टीका है, जिसमें जैन न्याय के साथ साथ जैन दर्शन का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है । इससे पूर्व मल्लवादी द्वारा लिखित टीका के भी उल्लेख मिलते हैं । प्राकृत में स्याद्वाद और नयका प्ररूपण करने वाले दूसरे आचार्य देवसेन हैं, जो दसवीं शताब्दी में हुए हैं । उनकी दो रचनाएं उपलभ्य हैं: एन लघु-नयचक्र, जिसमें ८७ गाथाओं द्वारा द्रव्याथिक, और पर्यायार्थिक इन दो तथा उनके नैगमादि नौ नयों को उनके भेदोपभेद के उदाहरणों सहित समझाया है । दूसरी रचना बृहन्नयचक्र हैं, जिसमें ४२३ गाथाएं हैं, और उसमें नयों व निक्षेपों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है । रचना के अंत की ६, ७ गाथाओं में लेखक ने एक यह महत्वपूर्ण बात बतलाई है कि आदितः उन्होंने 'दव्व -सहाव - पयास' ( द्रव्य स्वभाव (प्रकाश) नाम से इस ग्रन्थ की रचना दोहा बंध में की थी, किन्तु उनके एक शुभं - कर नामके मित्र ने उसे सुनकर हंसते हुए कहा कि यह विषय इस छंद में शोभा नहीं देता; इसे गाया बद्ध कीजिये | अतएव उसे उनके माहल्ल-धवल नामक शिष्य ने गाथा रूप में परिवर्तित कर डाला । स्याद्वाद और नयवाद का स्वरूप, उनके पारिभाषिक रूप में, व्यवस्था से समझने के लिये देवसेन की ये रचनायें बहुत उपयोगी हैं । इनकी न्यायविषयक एक अन्य रचना इसकी रचना संस्कृत गद्य में हुई हैं । जैन न्याय में सरलता से प्रवेश पाने के लिये यह छोटा सा ग्रन्थ बहुत सहायक सिद्ध होता है । इसकी रचना नयचक्र के पश्चात् नयों के सुबोध व्याख्यान रूप हुई है ।
'आलाप पद्धति' है ।
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न्याय विषयक संस्कृत जैन साहित्य
जैन न्याय की इस प्राचीन शैली को परिपुष्ट बनाने का श्रेय आचार्य समंतभद्र ( ५- वीं ६ ठी शती) को है, जिनकी न्याय विषयक आप्तमीमांसा
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