Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
हैं जैसे आयारंग सुत्त, उत्तराध्ययन सुत्त आदि। इस सुत्त का संस्कृत पर्याय सूत्र भ्रममूलक प्रतीत होता है। उसका उचित संस्कृत पर्याय सूक्त अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है। महावीर के काल में सूत्र शैली का प्रारंभ भी सम्भवतः नहीं हुआ था । उस समय विशेष प्रचार था वेदों के सूक्तों का । और संभवतः वही नाम मूलतः इन रचनाओं को, बौद्ध साहित्य के सुत्तों को, उसके प्राकृत रूप में दिया गया होगा। आगमों का टीका साहित्य
उपर्युक्त आगम ग्रन्थों से सम्बद्ध अनेक उत्तरकालीन रचनाएं हैं, जिनका उद्देश्य आगमों के विषय को संक्षेप या विस्तार से समझना है । ऐसी रचनाएँ चार प्रकार की हैं, जो नियुक्ति (णिज्जुत्ति) भाष्य (भास), चूणि (चुण्णि) और टीका कहलाती हैं । ये रचनाएं भी आगम का अंग मानी जाती हैं, और उनके सहित यह साहित्य पंचांगो आगम कहलाता है। इनमें नियुक्तियां अपनी भाषा, शैली, व विषय की दृष्टि से सर्वप्राचीन हैं। ये प्राकृत पद्यों में लिखी गई हैं, और संक्षेप में विषय का प्रतिपादन करती हैं । इनमें प्रसंगानुसार विविध कथानों व दृष्टान्तों के संकेत मिलते हैं, जिनका विस्तार हमें टीकाओं में प्राप्त होता है । वर्तमान में प्राचारांग, सूत्रकृतांग, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहार, कल्प, दशाथ तस्कंध, उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक इन ६ आगमों की नियुक्तियां मिलती हैं, और वे भद्रबाहुकृत मानी जाती हैं। दसवीं 'ऋषि भाषित नियुक्ति' का उल्लेख है, किन्तु वह प्राप्त नहीं हुई। इनमें कुछ प्रकरणों की नियुक्तियां, जैसे पिण्डनियुक्ति व अोधनियुक्ति मुनियों के प्राचार की दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण समझी गई कि स्वतंत्र रूप से प्रागम साहित्य में प्रतिष्ठित कर ली गई हैं।
भाष्य भी प्राकृत गाथाओं में रचित संक्षिप्त प्रकरण हैं । ये अपनी शैली में नियुक्तियों से इतने मिलते हैं कि बहुधा इन दोनों का परस्पर मिश्रण हो गया है, जिसका पृथक्करण असंभव सा प्रतीत होता है। कल्प, पंचकल्प, जीत कल्प, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, निशीथ और व्यवहार इनके भाष्य मिलते हैं। इनमें कथाएं कुछ विस्तार से पायी जाती हैं। निशीथ भाष्य में शश आदि चार धूर्तों की वह रोचक कथा वर्णित है जिसे हरिभद्रसूरि ने अपने धूर्ताख्यान नामक ग्रन्थ में सरसता के साथ पल्लवित किया है। कुछ भाष्यों, जैसे कल्प, व्यवहार और निशीथ के कर्ता संघदास गणि माने जाते हैं और विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्र (ई० रूप सं० ६०६)। यह भाष्य कोई ३६०० गाथाओं में पूर्ण हुआ है और उसमें ज्ञान, नय-निक्षेप, आचार आदि सभी विषयों का विवेचन किया गया है। इस पर स्वोपज्ञ टीका भी है।
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