Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
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लिखे गये, वे प्रकीर्णक कहलाये । ऐसे प्रकीर्णकों की संख्या सहस्त्रों बतलाई जाती है, किन्तु जिन रचनाओं को वल्लभी वाचना के समय आगम के भीतर स्वीकृत किया गया वे दस हैं, जिनके नाम हैं—(१) चतुःशरण (चउसरण), (२) प्रातुर-प्रत्याख्यान (आउरपच्चक्खाण),(३) महाप्रत्याख्यान(महा-पच्चक्खाण) (४) भक्तपरिज्ञा, (भत्तपइण्णा) (५) तंदुलवैचारिक (तंदुलवेयालिय, (६) संस्तारक (संथारग), (७) गच्छाचार (गच्छायार),(८) गणिविद्या (गणिविज्जा), (६) देवेन्द्रस्तव (देविंद्रथ) और (१०) मरणसमाधी (मरणसमाहि)। ये रचनायें प्रायः पद्यात्मक हैं। (१) चतुःशरण में प्रारंभ में छः आवश्यकों का उल्लेख करके पश्चात् अरहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म इन चार को शरण मानकर दुष्कृत (पाप) के प्रति निंदा और सुकृत (पुण्य) के प्रति अनुराग प्रगट किया गया है । इस में त्रेसठ गाथाएँ मात्र हैं । अंतिम गाथा में कर्ता का का नाम वीरभद्र अंकित पाया जाता है । (२)प्रातुर प्रत्याख्यान में बालमरण और पंडितमरण में भेद स्थापित किया गया है, और प्रत्याख्यान अर्थात् परित्याग को मोक्षप्राप्ति का साधन कहा गया है । इसमें केवल ७० गाथाएं हैं, और अंश गद्य में भी है। (३) महाप्रत्याख्यान में १४२ अनुष्टुप् छंदमय गाथाओं द्वारा दुष्चरित्र की निंदापूर्वक, सच्चरित्रात्मक भावनाओं, व्रतों व आराधनाओं और अन्ततः प्रत्याख्यान के परिपालन पर जोर दिया गया है । इस प्रकार यह रचना पूर्वोवत आतुरप्रत्याख्यान की ही पूरक स्वरूप है। (४) भक्त-परिज्ञा में १७२ गाथाओं द्वारा भक्त-परिज्ञा इंगिनी और पादोपगमन रूप मरण के भेदों का स्वरूप बतलाया गया है, तथा नाना दृष्टान्तों द्वारा मन को संयत रखने का उपदेश दिया गया है । मन को बन्दर की उपमा दी गई है, जो स्वभावतः अत्यन्त चंचल है और क्षणमात्र भी शांत नहीं रहता। (५)तंदुलवैचारिक या वैकालिक १२३ गाथाओं युक्त गद्य-पद्य मिश्रित रचना है, जिसमें गौतम और महावीर के बीच प्रश्नोत्तरों के रूप में जीव की गर्भावस्था, आहार-विधि, बालजीवन-क्रीड़ा आदि अवस्थाओं का वर्णन है । प्रसंग वश इसमें शरीर के अंग प्रत्यंगों का व उसकी अपवित्रता का, स्त्रियों की प्रकृति और उनसे उत्पन्न होने वाले साधुओं के भयों आदि का विस्तार से वर्णन है । (६) संस्तारक में १२२ गाथाओं द्वारा साधु के अन्त समय में तृण का आसन (संथारा) ग्रहण करने की विधि बतलाई गई है, जिस पर अविचल रूप से स्थिर रहकर वह पंडित-मरण करके सद्गति को प्राप्त कर सकता है। इस प्रसंग के दृष्टात स्वरूप सुबंधु व चाणक्य आदि नामों का उल्लेख हुआ है। (७) गच्छाचार में १३७ गाथाओं द्वारा मुनियों व आर्यिकाओं के गच्छ में रहने व तत्संबंधी विनय व नियमोपनियमों के पालन की विधि समझाई गई है । यहां मुनियों और साध्वियों को एक दूसरे प्रति पर्याप्त सतर्क रहने
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