Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
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(९) नौवें उपांग कल्पावतंसीका (कष्पावडंसियाओ) में श्रेणिक के दस पौत्रों की कथाएं हैं, जो अपने सत्कर्मों द्वारा स्वर्गगामी हुए।
(१०-११) दसवें व ग्यारहवें उपांग पुष्पिका (पुप्फियाओ) और पुष्पचूला (पुप्फचूलाओं) में १०-१० अध्ययन हैं, जिनमें ऐसे पुरुष-स्त्रियों की कथाएँ हैं जो धार्मिक साधनाओं द्वारा स्वर्गगामी हुए, और देवता होकर अपने विमानों द्वारा महावीर की वंदना करने आये ।
(१२) बाहरवें अंतिम उपांग वृष्णीदशा (वण्हिदसा) में बारह अध्य. यन हैं, जिनमें द्वारावती (द्वारिका) के राजा कृष्ण वासुदेव का बाईसवें तीर्यकर अरिष्टनेमि के रैवतक पर्वत पर विहार का एवं वृष्णि वंशीय बारह राजकुमारों के दीक्षित होने का वर्णन पाया जाता है ।
आठ से बारह तक के पाँच उपांग सामूहिक रूप से नीरयावलियाओं भी कहलाते हैं, और उनमें उन्हें उपांग नाम से निर्दिष्ट भी किया गया है । आश्चर्य नहीं जो आदित: ये ही पाँच उपांग रहे हों और वे अपने विषयानुसार अंगों से सम्बद्ध हों। पीछे द्वादशांग की देखादेखी उपाँगों की संख्या बारह तक पहुँचा दी गई हो।
छेदसूत्र-६
छह छेद सूत्रों के नाम क्रमशः (१) निशीथ, (निसीह)(२) महानिशीथ (महानिसीह) (३) व्यवहार (विवहार) (४) आचारदशा (आचारदसा) (५) कल्पसूत्र (कप्पसूत्त) और (६) पंचकल्प (पंचकप्प) या जीतकल्प (जीतकप्प) हैं, जिनमें बड़े विस्तार के साथ जैन मुनियों की बाह्य और आभ्यन्तर साधनाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है, और विशेष नियमों के भंग होने पर समुचित प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है, प्रसंगवश यहाँ नाना तीर्थंकरों व गणधरों सम्बन्धी घटनाओं के उल्लेख भी आये हैं । इन रचनाओं में कल्पसूत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध है, और साधुओं में उसके पठन-पाठन की परम्परा आज तक विशेष रूप से सुप्रचलित है । मुनियों के वैयक्तिक व सामूहिक जीवन और उसकी समस्याओं का समुचित ज्ञान प्राप्त करने के लिये ये रचनाएँ बड़े महत्व की हैं।
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