Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
के उत्पत्ति; विनाश व ध्र वता का विचार किया गया था । द्वितीय पूर्व अ ग्रायणीय में उक्त समस्त द्रव्यों तथा उनकी नाना अवस्थाओं की संख्या, परिमाण आदि का विचार किया गया था । तृतीय पूर्व वीर्यानुवाद में उक्त द्रव्यों के क्षेत्रकालादि की अपेक्षा से वीर्य अर्थात् बल-सामर्थ्य का प्रतिपादन किया गया था। चतुर्थ पूर्व अस्ति-नास्ति प्रवाद में लौकिक वस्तुओं के नाना अपेक्षाओं से अस्तित्व नास्तित्व का विवेक किया गया था । पाँचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद में मति आदि ज्ञानों तथा उनके भेद प्रभेदों का प्रतिपादन किया गया था। छठे पूर्व सत्यप्रवाद में वचन की अपेक्षा सत्यासत्य विवेक व वक्ताओं की मानसिक परिस्थितियों तथा असत्य के स्वरूपों का विवेचन किया गया था। सातवें पूर्व आत्मप्रवाद में आत्मा के स्वरूप, उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन सम्बन्धी विवेचन किया गया था । आठवें पूर्व कर्मप्रवाद में नाना प्रकार के कर्मों की प्रकृतियों स्थितियों शक्तियों व परिमाणों आदि का प्ररूपण किया गया था । नौवें पूर्व प्रत्याख्यान में परिग्रह-त्याग उपवासादि विधि, मन वचन काय की विशुद्धि आदि आचार सम्बन्धी नियम निर्धारित किये गये थे। दसवें पूर्व विद्यानुवाद में नाना विधाओं और उपविधाओं का प्ररूपण किया गया था, जिनके भीतर अंगुष्ट प्रसेनादि सातसौ अल्पविद्याओं, रोहिणी आदि पाँचसौ महाविद्याओं एवं अन्तरिक्ष भौम, अंग, स्वर स्वप्न, लक्षण व्यंजन और छिन्न इन आठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य को जानने की विधि का वर्णन था । ग्यारहवें पूर्व कल्याणवाद में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की नाना गतियों को देखकर शकुन के विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों चक्रवतियों आदि महापुरूषों के गर्भावतरण आदि के अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का कथन किया गया था। इस पूर्व के अबन्ध्य नाम की सार्थकता यहीं प्रतीत होती है कि शकुनों और शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य में होने वाली घटनाओं का कथन अबन्ध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। बारहवें पूर्व प्राणावाय में आयुर्वेद अर्थात् कायचिकित्सा-शास्त्र का प्रतिपादन एवं प्राण अपान आदि वायुओं का शरीर धारण की अपेक्षा से कार्य का विवेचन किया गया था। तेरहवें पूर्व क्रियाविशाल में लेखन, गणना आदि बहत्तर कलाओं, स्त्रियों के चौंसठ गुणों और शिल्पों, ग्रन्थ रचना सम्बन्धी गुण-दोषों व छन्दों आदि का प्ररूपण किया गया था । चौदहवें पूर्व लोकबिन्दुसार में जीवन की श्रेष्ठ क्रियाओं व व्यवहारों एवं उनके निमित्त से मोभ के सम्पादन विषयक विचार किया गया था। इस प्रकार स्पष्ट है कि इन पूर्व नामक रचनाओं के अन्तर्गत तत्कालीन न केवल धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विचारों का संकलन किया गया था, किन्तु उनके भीतर
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