Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
संख्या पहुंची है, जहां बतलाया गया है कि शतविषा नक्षत्र में १०० तारे हैं, पार्श्व अरहंत तथा सुधर्माचार्य की पूर्णायु सौ वर्ष की थी इत्यादि । इसके पश्चात् २००, ३०० आदि क्रम से वस्तु-निर्देश आगे बढ़ा है । और यहां कहा गया है कि श्रमण भगवान महावीर के तीन सौ शिष्य १४ पूर्वो के ज्ञाता थे, और ४०० वादी थे । इसी प्रकार शतक्रम से १६१ वें सूत्र पर संख्या दस सहस्त्र पर और पहुंच गई है । तत्पश्चात् संख्या शतसहस्त्र (लाख) के क्रम से बढ़ी है, जैसे अरहन्त पाश्वं के तीन शत-सहस्त्र और सत्ताईस सहस्त्र उत्कृष्ट श्राविका संघ था । इस प्रकार २०८ वें सूत्रतक दशशत-सहस्त्र पर पहुंच कर आगे कोटि क्रम से कथन करते हुए २१० वें सूत्र में भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीथंकर भगवान महावीर वर्द्धमान तक का अन्तरकाल एक सागरोपम कोटाकोटि निर्दिष्ट किया गया है। तत्पश्चात् २११ वें से २२७ वें सूत्र तक आया रांग आदि बारहों अगों के विभाजन और विषय का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यहाँ इन रचनाओं को द्वादशांग गणिपिटक कहा गया है । इसके पश्चात् जीवराशि का विवरण करते हुए स्वर्ग और नरक भूमियों का विवरण पाया जाता है। २४६ वें सूत्र से अन्त के २७५ वें सूत्र तक कुलकरों, तीर्थंकरों चक्रवतियों तथा बलदेव और वासुदेवों एवं उनके प्रतिशत्रुओं (प्रतिवासुदेवों) का उनके पिता, माता, जन्मनगरी, दीक्षास्थान आदि नामावली-क्रम से विवरण किया गया है। इस भाग को हम संक्षिप्त में जैन पुराण कह सकते हैं। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि सूत्र क्र. १३२ में उत्तम (शलाका)पुरुषों की संख्या ५४ निर्दिष्ट की गई है, ६३ नहीं अर्थात नौ प्रतिवासुदेवों को शलाका पुरुषों में सम्मिलित नहीं किया गया । ४६ संख्या के प्रसंग में दृष्टिवाद अंग के मातृकापदों तथा ब्राह्मी लिपि के ४६ मातृका अक्षरों का उल्लेख हुआ है। सूत्र १२४ से १३०वें सूत्र तक मोहनीय कर्म के ५२ पर्यायवाची नाम गिनाये गये हैं, जैसे क्रोध, कोप रोष, द्वेष, अक्षम, संज्वलन , कलह आदि। अनेक स्थानों (सू० १४१ १६२) ऋषभ अरहन्त को कोसलीय विशेषण लगाया गया है, जो उनके कोशल देशवासी होने का सचक है । इससे महावीर के साथ जो अन्यत्र 'वेसालीय' विशेषण लगा पाया जाता है, उनसे उनके वैशाली के नागरिक होने की पुष्टि होती है । १५० वे सूत्र में लेख, गणित, रूप, नाट्य, गीत वादित्र आदि बहतर कलाओं के नाम निर्दिष्ट हुए हैं। इस प्रकार जैन सिद्धांत व इतिहास की परम्परा के अध्ययन की दृष्टि से यह श्रु ताँग महत्वपूर्ण है। अधिकांश रचना गद्य रूप है, किन्तु बीच बीच में नामावलियां व अन्य विवरण गाथाओं द्वारा भी प्रस्तुत हुए हैं।
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