Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
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५-भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति (वियाह-पण्णन्ति)-इसे संक्षेप में केवल भगवती नाम से भी उल्लिखित किया जाता है। इसमें ४१ शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशकों में विभाजित है। आदि के पाठ शतक, तथा १२-१४, तथा १८-२० ये १४ शतक १०, १० उद्देशकों में विभाजित हैं। शेष शतकों में उद्देशकों में संख्या हीनाधिक पाई जाती है। पन्द्रहव शतक में उद्देशक भेद नहीं है। यहाँ मंखलिगोशाल का चरित्र एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है । कहीं कहीं उद्देशक संख्या विशेष प्रकार के विभागानुसार गुणित क्रम से बतलाई गई है; जैसे ४१ वें शतक में २८ प्रकार की प्ररूपणा के गुणा मात्र से उद्देशकों की संख्या १६६ हो गई है। ३३ वें शतक में १२ अवान्तर शतक हैं, जिनमें प्रथम आठ, ग्यारह के गुणित क्रम से ८८ उद्देशकों में एवं अन्तिम चार, नौ उद्देशकों के गुणित क्रम से ३६ होकर सम्पूर्ण उद्देशकों की संख्या १२४ हो गई है । इस समस्त रचना का सूत्र-क्रम से ही विभाजन पाया जाता है, जिसके अनुसार कुल सूत्रों की संख्या ८६७ है। इस प्रकार यह अन्य श्रुतांगों की अपेक्षा बहुत विशाल है । इसकी वर्णन शैली प्रश्नोत्तर रूप में है। गौतम गणधर जिज्ञासा-भाव से प्रश्न करते हैं, और स्वयं तीर्थंकर महावीर उत्तर देते हैं। टीकाकार अभयदेव ने इन प्रश्नोत्तरों की संख्या ३६००० बतलाई है। प्रश्नोत्तर कहीं बहुत छोटे छोटे हैं । जैसे भगवन् ज्ञान का क्या फल है ?--विज्ञान । विज्ञान का क्या फल है ? प्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान का फल क्या है ? संयम; इत्यादि । और कहीं ऐसे बड़े कि प्रायः एक ही प्रश्न के उत्तर में मंखलिगोशाल के चरित्र सम्बन्धी पन्द्रहवां शतक ही पूरा हो गया है। इन प्रश्नोत्तरों में जैन सिद्धान्त व इतिहास तथा अन्य सामयिक घटनाओं व व्यक्तियों का इतना विशाल संकलन हो गया है कि इस रचना को प्राचीन जैन-कोष ही कहा जाय तो अनुचित नहीं । स्थानस्थान पर विवरण अन्य ग्रन्थों, जैसे पण्णवणा, जीवाभिगम, उववाइय, रायपसेणिज्ज, णंदी आदि का उल्लेख करके संक्षिप्त कर दिया गया है, और इस प्रकार उद्देशक के उद्देशक भी समाप्त कर दिये गये हैं। ये उल्लिखित रचनायें निश्चय ही ग्यारह श्रुतांगों से पश्चात-कालीन हैं। नंदीसूत्र तो वल्लभी बाचना के नायक देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की ही रचना मानी जाती है । उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से, तथा यहां के विषय-विवरण को उसे देखकर पूर्ण कर लेने की सूचना से यह प्रमाणित होता है कि इस श्रुतांग को अपना वर्तमान रूप, नंदीसूत्र की रचना के पश्चात् अर्थात् वीर० निर्वाण से लगभग १००० वर्ष पश्चात् प्राप्त हुआ है। यही बात प्रायः अन्य श्रुतागों के सम्बन्ध में भी घटित होती है । तथापि इसमें सन्देह नहीं कि विषय-वर्णन प्राचीन है,
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