Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
की कथाएं बतलाई गई हैं । वृक्ष भी तीन प्रकार के हैं; पत्रोपेत, पुष्पोपेत और फलोपेत । पुरुष भी नाना दृष्टियों से तीन-तीन प्रकार के हैं-जैसे नाम पुरुष, द्रव्य पुरुष और भाव पुरुष अथवा ज्ञानपुरुष, दर्शन पुरुष और चरित्रपुरुष; अथवा उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष और जघन्यपुरुष । उत्तम भी तीन प्रकार के हैं-धर्म पुरुष, मोग पुरुष और कर्मपुरुष । अर्हन्त धर्मपुरुष हैं, चक्रवर्ती भोगपुरुष है, और वासुदेव कर्मपुरुष । धर्म भी तीन प्रकार का कहा गया है-श्रतधर्म, चरित्र धर्म और अस्तिकाय धर्म । चार प्रकार की अन्त-क्रियाएँ बतलाई गई हैं और उनके दृष्टान्त-स्वरूप भरत चक्रवर्ती, गजसुकुमार, सनत्कुमार और मरुदेवी के नाम बतलाये गये हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों को छोड़ बीच के २२ तीर्थकर चातुर्याम धर्म के प्रज्ञापक कहे गये हैं। आजीविकों का चार प्रकार का तप कहा गया है-उग्रतप, घोरतप, रसनियूं यणता और जिह्वेन्द्रिय प्रतिसलीनता शरवीर चार प्रकार के बतलाये गये हैं, क्षमासूर, तपसूर, दानशूर और युद्धशूर आचार्य वृक्षों के समान चार प्रकार के बतलाये गये हैं और उनके लक्षण मी चार गाथाओं द्वारा प्रकट किये गये हैं। कोई प्राचार्य और उसका शिष्य परिवार दोनों शाल वृक्ष के समान महान् और सुन्दर होते हैं। कोई आचार्य तो शालवृक्ष के समान होते हैं, किन्तु उनका शिष्य-समुदाय एरंड के समान होता है । किसी प्राचार्य का शिष्य-समुदाय तो शालवृक्ष के समान महान होता है किंतु स्वयं आचार्य एरंड के समान खोखला; और कहीं आचार्य और उनका शिष्यसमुदाय दोनों एरंड के समान खोखले होते हैं । सप्तस्वरों के प्रसंग से प्रायः गीतिशास्त्र का पूर्ण निरूपण आ गया है। यहाँ भणिति बोली दो प्रकार की कही गई है-सस्कृत और प्राकृत । महावीर के तीर्थ में हुए बहुरत प्रादि सात निन्हवों और जामालि आदि उनके संस्थापक आचार्यों एवं उनके उत्पत्ति-स्थान श्रावस्ती आदि नगरियों का उल्लेख भी आया है। महावीर के तीर्थ में जिन नौ पुरुषों ने तीर्थंकर गौत्र का बंध किया उनके नाम इस प्रकार हैं-श्रेणिक, सुपार्श्व उदायी, प्रोष्ठिल, दढ़ायु, शंख, सजग या शतक (सयय), सुलसा और रेवती । इस प्रकार इस श्रु तांग में नाना प्रकार का विषय-वर्णन प्राप्त होता है, जो अनेक दष्टियों से महत्वपूर्ण हैं ।
४- समवायांग-इस श्रु तांग में २७५ सूत्र हैं । अन्य कोई स्कंध, अध्ययन या उद्देशक आदि रूप से विभाजन नहीं है। स्थानांग के अनुसार यहाँ से क्रम से वस्तुओं का निर्देश और कहीं कहीं उनके स्वरूप व भेदोपभेदों का वर्णन किया गया है, आत्मा एक है। लोक एक है; धर्म अधर्म एक-एक हैं; इत्यादि क्रम के २,३,४ वस्तुओं को गिनाते हुए १७८ वें सूत्र में १०० तक
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