Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
२-सूत्रकृतांग (सूयगर्ड)-यह भी दो श्रु तस्कंधों में विभक्त है, जिनके पुनः क्रमशः १६ और ७ अध्ययन हैं । पहला श्र तस्कंध प्रायः पद्यमय है। केवल एक अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है । दूसरे श्रु तस्कंध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं। इसमें गाथा छन्द के अतिरिक्त अन्य छन्दों का भी उपयोग हुआ है, जैसे इन्द्रवज्रा, वैतालिक अनुष्टुप् आदि । ग्रन्थ में जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य मतों व वादों का प्ररूपण किया गया है जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद, आदि । मुनियों को भिक्षाचार में सतर्कता, परीषहों की सहनशीलता, नरकों के दुःख, उत्तम साधुओं के लक्षण, ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षुक व निर्ग्रन्थ आदि शब्दों की व्युत्पत्ति भले प्रकार उदाहरणों व रूपकों द्वारा समझाई गई है। द्वितीय श्रु तस्कंध में जीवशरीर में एकत्व, ईश्वर-कर्तृत्व व नियतिवाद आदि मतों का खंडन किया गया है । आहार व भिक्षा के दोषों का निरूपण हुआ है। प्रसंगवश भौमोत्पादादि महा-निमित्तों का भी उल्लेख आया है । प्रत्याख्यान किया बतलाई गई है। पाप-पुण्य का विवेक किया गया है, एवम् गौशालक, शाक्यभिक्षु आदि तपस्वियों के साथ हुआ वाद विवाद अंकित है । अन्तिम अध्ययन नालन्दीय नामक है, क्योंकि इसमें नालन्दा में हुए गौतम गणधर और पार्श्वनाथ के शिष्य उदकपेठालपुत्र का वार्तालाप और अन्त में पेठालपुत्र द्वारा चातुर्याम को त्यागकर पंच-महाव्रत स्वीकार करने का वृत्तांत आया है । प्राचीन मतों वादों, व दृष्टियों के अध्ययन की दृष्टि से यह श्रुताँग बहुत महत्वपूर्ण है। भाषा की दृष्टि से भी यह विशेष प्राचीन सिद्ध होता है ।
३-स्थानांग (ठाणांग)—यह श्रुताँग दस अध्ययनों में विभाजित है, उसमें सूत्रों की संख्या एक हजार से ऊपर है । इसकी रचना पूर्वोक्त दो श्रुतांगों से भिन्न प्रकार की है। यहां प्रत्येक अध्ययन में जैन सिद्धांतानुसार वस्तु-संख्या गिनाई गई है। जैसे प्रथम अध्ययन में बतलाया गया है-एक दर्शन, एक चरित्र एक समय एक प्रदेश एक परमाणु एक सिद्ध आदि । उसी प्रकार दूसरे अध्ययन में बतलाया गया है कि क्रियाएँ दो हैं, जीव क्रिया और अजीव किया । जीव क्रिया पुनः दो प्रकार की है, सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया । उसी प्रकार अजीव क्रिया भी दो प्रकार को है, इर्यापथिक और साम्परायिक, इत्यादि । इसी प्रकार दसवें अध्ययन में इसी क्रम से वस्तुभेद दस तक गये हैं। इस दृष्टि से यह श्र तांग पालि बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय से तुलनीय है । यहाँ नाना प्रकार के वस्तु-निर्देश अपनी अपनी दष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण हैं । यथास्थान ऋग्, यजुः और साम, ये तीन वेद बतलाये गये हैं, धर्म, अर्थ, और काम ये तीन प्रकार
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