Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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अर्धमागधी जैनागम
६१
को सुनकर मेघकुमार को मुनिदीक्षा धारण करने की इच्छा हुई । माता ने बहुत कुछ समझाया, किन्तु राजकुमार नहीं माना और उसने प्रव्रज्या ग्रहण करली । मुनि-धर्मं पालन करते हुए एकबार उसके हृदय में कुछ क्षोभ उत्पन्न हुआ, और उसे प्रतीत हुआ जैसे मानों उसने राज्य छोड़, मुनि दीक्षा लेकर भूल की है । किन्तु जब महावीर ने उसके पूर्व जन्म का वृतान्त सुनाकर समझाया, तब उसका चित्त पुनः मुनिधमं में दृढ़ हो गया । इसी प्रकार अन्य अन्य अध्ययनों में भिन्न भिन्न कथानक तथा उनके द्वारा तप त्याग व संयम संबंधी किसी नीति व न्याय की स्थापना की गई है । आठवें अध्ययन में विदेह राजकन्या मल्लि एवं सोलहवें अध्ययन के द्रोपदी के पूर्व जन्म की कथा विशेष ध्यान देने योग्य है | व्रतकथाओं में सुप्रचलित सुगंध दशमी कथा का मूलाधार द्रोपदी के पूर्वभव में नागश्री व सुकुमालिया का चरित्र सिद्ध होता है । द्वितीय श्रुतस्कंध दश वर्गों में विभाजित है, और प्रत्येक वर्ग पुनः अनेक अध्ययनों में विभक्त है । इन वर्गों में प्रायः स्वर्गों के इन्द्रों जैसे चमरेन्द्र, असुरेन्द्र वाणव्यंतरेन्द्र, चन्द्र, सूर्य, शक्र व ईशान की अग्रमहिषी रूप से उत्पन्न होने वाली पुण्यशाली स्त्रियों की कथाएँ है । तीसरे वर्ग में देवकी के पुत्र गजसुकुमाल का कथानक विशेष उल्लेखनीय है, क्योंकि यह कथानक पीछे के जैन साहित्य में पल्लवित होकर अवतरित हुआ है । यही कथानक हमें पालि महावग्ग में यस पब्बज्जा के रूप में प्राप्त होता है ।
७ – उपासकाध्ययन (उवासगदसाओ ) – इस श्रुतांग में, जैसा नाम में ही सूचित किया गया है, दश अध्ययन हैं; और उनमें क्रमश: आनन्द, कामदेव, चुलनीप्रिय, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकोलिय, सद्दालपुत्र, महाशतक, नंदिनीप्रिय और सालिहीप्रिय इन दस उपासकों के कथानक हैं । इन कथानकों के द्वारा जैन गृहस्थों के धार्मिक नियम समझाये गये हैं । और यह भी बतलाया गया है कि उपासकों को अपने धर्म के परिपालन में कैसे कैसे विघ्नों और प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है । प्रथम आनन्द अध्ययन में पांच अतुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों- इन बारह व्रतों तथा उनके अतिचारों का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है । इनका विधिवत् पालन वाणिज्य ग्राम के जैन गृहस्थ आनंद ने किया था । आनन्द बड़ा धनी गृहस्थ था, जिसकी धन्य-धान्य सम्पत्ति करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं की थी । आनंद ने स्वयं भगवान् महावीर से गृहस्थ-व्रत लेकर अपने समस्त परिग्रह और भोगोपभोग के परिणाम को सीमित किया था । उसने क्रमशः अपनी धर्मसाधना को बढ़ाकर बीस वर्ष में इतना अवधिज्ञान प्राप्त किया था कि उसके विषय में गौतम गण
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