Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन साहित्य
तथापि न तो वहां इन विचारों की कोई अविच्छिन्न धारा दृष्टिगोचर होती, और न उक्त प्रश्नों के समाधान का कोई व्यवस्थित प्रयत्न किया गया दिखाई देता, इस प्रकार का चिंतन पारण्यकों और उपनिषदों में हमें बहुलता से प्राप्त होता है। इन रचनाओं का प्रारम्भ ब्राह्मण काल में अर्थात् ई०पू० आठवीं शताब्दी के लगमग हो गया था, और सहस्त्रों वर्ष पश्चात् तक निरन्तर प्रचलित रहा. जिसके फलस्वरूप संस्कृत साहित्य में सैकड़ों उपनिषत् ग्रन्थ पाये जाते हैं। ये ग्रन्थ केवल अपने विषय और भावना की दृष्टि से ही नहीं, किन्तु अपनी ऐतिहासिक व भौगोलिक परम्परा द्वारा शेष वैदिक साहित्य से अपनी विशेषता रखते हैं। जहाँ वेदों में देवी देवताओं का आह्वान, उनकी पूजा-अर्चा तथा सांसारिक सुख और अभ्युदय सम्बन्धी वरदानों की माँग की प्रधानता है, वहाँ उपनिषदों में उन समस्त बातों की कठोर उपेक्षा, और तात्विक एवं आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता पाई जाती है । इस चितन का आदि भौगोलिक केन्द्र वेद-प्रसिद्ध पंचनद प्रदेश व गंगा-यमुना से पवित्र मध्य देश न होकर वह पूर्व प्रदेश है जो वैदिक साहित्य में धार्मिक दृष्टि से पवित्र नहीं माना गया । अध्यात्म के आदि-चिंतक, वैदिक ऋषि व ब्राह्मण पुरोहित नहीं, किन्तु जनक जैसे क्षत्रिय राजर्षि थे, और जनक की ही राजसभा में यह आध्यात्मिक चिंतनधारा पुष्ट हुई पाई जाती है ।
___जैनधर्म मूलतः प्राध्यात्मिक है, और उसका आदित: सम्बन्ध कोशल, काशी, विदेह आदि पूर्वीय प्रदेशों के क्षत्रियवंशी राजाओं से पाया जाता है । इसी पूर्वी प्रदेश में जैनियों के अधिकांश तीर्थंकरों ने जन्म लिया, तपस्या की, ज्ञान प्राप्त किया और अपने उपदेशों द्वारा वह ज्ञानगंगा बहाई जो आजतक जैनधर्म के रूप में सुप्रवाहित है। ये सभी तीर्थंकर क्षत्रिय राजवंशी थे। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि जनक के ही एक पूर्वज नमि राजा जैनधर्म के २१ वें तीर्थंकर हुए हैं। अतएव कोई आश्चर्य की बात नहीं जो जनक-कुल में उस आध्यात्मिक चिंतन की धारा पाई जाय जो जैनधर्म का मूलभूत अंग है । उपनिषत्कार पुकार पुकार कर कहते हैं कि
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा व प्रकाशते । दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मवशिमिः ॥(कठो.१, ३, १२)
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हन्त तेऽदम् प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम ॥
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