Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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जैन धर्मं का उद्गम और विकास
मल्ल (चतुर्थ) थे, जिनके मंत्री चामुण्डराज ने श्रवणबेलगोल के विन्ध्यगिरि पर चामुण्डराय बस्ति निर्माण कराई और गोमटेश्वर की उस विशाल मूर्ति का उद्घाटन कराया जो प्राचीन भारतीय मूर्तिकला का एक गौरवशाली प्रतीक है । चामुण्डराय का बनाया हुआ एक पुराण ग्रन्थ भी मिलता है जो कन्नड भाषा में है । इसे उन्होंने शक सं० ६०० में समाप्त किया था । उसमें भी उन्होंने अपने ब्रह्मक्षेत्र कुल तथा अजितसेन गुरु का परिचय दिया है । अनेक शिलालेखों में विविध गंगवंशी राजाओं, सामन्तों, मंत्रियों व सेनापतियों आदि के नामों, उनके द्वारा दिये गये दानों आदि धर्मकार्यों, तथा उनके संल्लेखना पूर्वक मरण के उल्लेख पाये जाते हैं । कन्नड कवि पोन द्वारा सन् ६३३ में लिखे गये शान्तिपुराण की सन् ६७३ के लगभग एक धर्मिष्ट महिला आतिमब्बे ने एक सहस्त्र प्रतियां लिखाकर दान में बँटवा दीं ।
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राष्ट्रकूट राजवंश -
होता है कि राजा अमोघवर्ष
सातवीं शताब्दी से दक्षिण भारत में जिस राजवंश का बल व राज्यविस्तार बढ़ा, उस राष्ट्रकूट वंश से तो जैनधर्म का बड़ा घनिष्ठ संबंध पाया जाता है । राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष प्रथम ने स्वयं प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका की रचना की थी, जिसका तिब्बती भाषा में उसकी रचना के कुछ ही पश्चात् अनुवाद हो गया था और जिस पर से यह भी सिद्ध राज्य छोड़कर स्वयं दीक्षित हो गये थे । उनके विषय में यह भी कहा पाया जाता है कि वे आदिपुराण के कर्त्ता जिनसेन के चरणों की पूजा करते थे । शाकटायन व्याकरण पर की अमोघवृत्ति नामक टीका उनके नाम से संबद्ध पाई जाती है, और उन्हीं के समय में महावीराचार्य ने अपने गणितसार नामक ग्रन्थ की रचना की थी । वे कन्नड अलंकारशास्त्र 'कविराजमार्ग' के कर्त्ता भी माने जाते हैं । उनके उत्तराधिकारी कृष्ण तृतीय के काल में गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण को पूरा किया, इन्द्रनन्दि ने ज्वाला-मालिनी-कल्प की रचना की; सोमदेव ने यशस्तिलक चम्पू नामक काव्य रचा तथा पुष्पदंत ने अपनी विशाल, श्रेष्ठ अपभ्रंश रचनाएँ प्रस्तुत कीं । उन्होंने ही कन्नड के सुप्रसिद्ध जैन कवि पोन को उमय-भाषा चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया । उनके पश्चात् राष्ट्रकूट नरेश इन्द्रराज चतुर्थ ने शिलालेखानुसार अपने पूर्वज अमोघवर्ष के समान राज्यपाट त्याग कर जैन मुनि दीक्षा धारण की थी, और श्रवणबेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत पर समाधिपूर्वक मरण किया था । श्रवणबेलगोला के अनेक शिलालेखों में राष्ट्रकूट नरेशों की जैनधर्म के प्रति आस्था, सम्मान - वृद्धि और दानशीलता के उल्लेख पाये जाते हैं । राष्ट्रकूटों के संरक्षण में उनकी राजधानी
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