Book Title: Bharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Yogdan
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Madhyapradesh Shasan Sahitya Parishad Bhopal
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दक्षिण भारत व लंका में जैन धर्म तथा राजवंशों से संबंध
है । मथुरा के स्तूपों की परम्परा मुगल सम्राट अकबर के काल तक पाई जाती है, क्योंकि उस समय के जैन पंडित राजमल्ल ने अपने जम्बूस्वामी-चरित में लिखा है कि मथुरा में ५१५ जीर्णस्तूप थे जिनका उद्धार टोडर सेठ ने अपरिमित व्यय से कराया था । ई० पू० प्रथम शताब्दि में जैन मुनिसंघ की उज्जैनी में अस्तित्व का प्रमाण कालकाचार्य कथानक में मिलता है। इस कथानक के अनुसार उज्जैन के राजा गर्दभिल्ल ने अपनी कामुक प्रवृत्ति से एक जैन अजिका के साथ अत्याचार किया, जिसके प्रतिशोध के लिए कालकसूरि ने शाही राजाओं से संबंध स्थापित किया। इन्होंने गर्दभिल्ल को युद्ध में परास्त कर, उज्जैन में शक राज्य स्थापित किया। इसी वंश का विनाश पीछे विक्रमादित्य ने किया। इस प्रकार यह घटना-चक्र विक्रम संवत से कुछ पूर्व का सिद्ध होता है । उससे यह भी पता चलता है कि प्रसंगवश अतिशान्त-स्वभावी और सहनशील जैन-मुनियों का भी कभी-कभी राज शक्तियों से संघर्ष उपस्थित हो जाया करता था।
मथुरा से प्राप्त एक लेख में उल्लेख मिलता है कि गुप्त संवत् ११३ (ई०सन् ४३२) में श्री कुमार गुप्त के राज्य काल में विधाधरी शाखा के दंतिलाचार्य की आज्ञा से श्यामाढ्य ने एक प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई। कुमारगुप्त के काल (सन् ४२६) का एक और लेख उदयगिरि (विदिशा मालवा) से मिला है, जिसमें वहाँ पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। गुप्तकाल के सं० १४१ (ई० सन् ४६०) में स्कंदगुप्त राजा के उल्लेख सहित जो शिलालेख कहायू (संस्कृत ककुमः) से प्राप्त हुआ है उसमें उल्लेख है कि पांच अरहंतों की स्थापना मन्द्र नामके धर्म पुरुष ने कराई थी और शैल स्तम्भ खड़ा किया था।
दक्षिण भारत व लंका में जैन धर्म तथा राजवंशों से संबंध
एक जैन परम्परानुसार मौर्यकाल में जैरमुनि भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त सम्राट को प्रभावित किया था और वे राज्य त्याग कर, उन मुनिराज के साथ दक्षिण को गए थे। मैसूर प्रान्त के अन्तर्गत श्रवणबेलगोला में अब भी उन्हीं के नाम से एक पहाड़ी चन्द्रगिरि कहलाती है, और उस पर वह गुफा भो बतलाई जाती है, जिसमें भद्रबाहु ने तपस्या की थी, तथा राजा चन्द्रगुप्त उनके साथ अन्त तक रहे थे । इस प्रकार मोर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के काल में जैन धर्म का दक्षिणभारत में प्रवेश हुआ माना जाता है । किन्तु बौद्धों के पालि साहित्यान्तर्गत महावंश में जो लंका के राजवंशों का विवरण पाया जाता है, उसके अनुसार बुद्धनिर्माण से १०६ वर्ष पश्चात् पांडुकाभय राजा का अभिषेक हुआ और उन्होंने अपने राज्य के प्रारंभ में ही अनुराधपुर की स्थापना की, जिसमें उन्होंने
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