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· · 'हठात् मेरे पैरों में धमाका हुआ। नीली-सिन्दूरी लम्पटों से प्रज्ज्वलित शूलपाणि यक्ष का विशाल शरीर महावीर के चरणों में ढलक पड़ा । अंजुलिबद्ध करों के साथ वह प्रार्थनाकुल स्वर में बोला :
'महाकारुणिक प्रभु । मेरे अकारण वत्सल पिता । सर्वशक्तिमान हो, स्वामी । इस दुरात्मा ने तुम्हारी शक्ति को न जाना। तुम्हें पहचानने में मुझे बहुत देर लग गई । जन्म-जन्मान्तर के वल्लभ एक तुम्हीं तो हो । जाने कितने भवों की मेरी व्यथाएँ, वेदनाएँ, विक्षोभ तुमने हर लिए। मेरे दारुण से दारुणतम प्रहारों को अविचल तुम सहते ही चले गये। और मेरी चेतना में बद्धमूल कषायों की भवान्तरों की विष-ग्रंथियां खुलती चली गयीं । मैं मुक्त हुआ, मैं उपशान्त हुआ। मेरे मुक्तिदाता...आ गये तुम ! बोलो, तुम्हारा क्या प्रिय करूं ?'
देवासन पर आसीन वृषभ के भीतर से उत्तर सुनाई पड़ा :
'मेरा नहीं, अपना ही प्रिय करो, बन्धु । अपने ही को पूर्ण प्यार करो। इतना कि प्राणि मात्र आपोआप तुम्हारे प्रियपात्र हो जायें। तुम नहीं, सर्वत्र केवल तुम्हारा प्यार रह जाये। मित्ती में सव्व भूदेषु. . .!'
यक्ष के भ्रूमध्य में सम्यक चक्षु खुल उठा । वह आनन्द विभोर हो कर किलकारियां करता हुआ, मेरे चारों ओर, फूट पड़ते झरनों के समान नृत्य-संगीत करने लगा। आदि काल से उसकी चेतना में जमी कल्मष की चट्टानें उसमें गलगल कर बहने लगीं।...भयाकुल ग्रामजनों ने सोचा निश्चय ही यक्ष ने उस कुमार-योगी का वध कर दिया है। और अब वह विजय-गर्व से मत्त होकर संगीतनृत्य कर रहा है।
चार प्रहर रात्रि तक भय-भैरव के साथ जो अनवरत युद्ध चला था, उस श्रम के कारण एक गहरी मुक्ति का-सा बोध हुआ। सो अन्तिम प्रहर में मुझ पर एक सुदख तन्द्रा-सी छा गई । और उसके दौरान विचित्र सपनों की एक परम्परा मेरी चेतना में खुलती चली गई। बाल्य औत्सुक्य से उस छायालीला को देखता रहा । सत्ता के विभिन्न स्तरों में जाने कहाँ-कहाँ कैसे अनहोने खेल चल रहे हैं, सो कितने लोग जान पाते हैं।
जब जाग कर बहिर्मुख हुआ, तो देखा कि मन्दिर के पूर्व द्वार में आकर सूर्य वन्दना की मुद्रा में खड़े हैं। मन ही मन नमस्कार करके प्रथम अदिति-पुत्र का मैंने स्वागत किया। तभी ग्रामजनों का एक बड़ा समुदाय मंदिर के प्रांगण में खड़ा दिखाई पड़ा।...मैं मन्दिर के सोपान पर आ खड़ा हुआ। मुझे अक्षत, पूजित और प्रसन्न देख कर ग्राम लोक आनन्द-विभोर हो जयनिनाद करने लगे।
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