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हैं । अनादिकालीन कषायों के तमसारण्य उनके ढालों को पाटे हुए हैं। उनकी अगम्य गोपनताओं में अहं-वासना के जाने कौन दुर्मत्त व्याघ्र हुंकार रहे हैं । वृक्ष के भीतर बेशुमार वृक्ष हैं, एक शाखा में अनन्त शाखाएँ फूट रही हैं । इन झाड़ीझंखाडों और शाखा-जालों में बार-बार अपना अन्तर-सूर्य झांक कर खो जाता है। कर्म के इन अपार पर्वातारण्यों को भेदे बिना विराम नहीं। मेरी इस देह में ही इसके मूल पड़े हैं। मेरी हड्डियों, और मेरे स्नायु-जालों में ही इनके शाखाजाल विस्तृत हैं। अब तक जो आघात इस शरीर पर हुए हैं, वे काफी नहीं। - 'प्रचण्ड से प्रचण्डतर होते आघातों के बिना, आदिम तमस का यह लोक ध्वस्त नहीं हो सकेगा। संसार में भ्रमण करते जीवों की तमाम एकत्रित हिंसा की एकाग्र चोट के बिना, पूर्ण चिन्मति का अखण्ड दीपक नहीं उजल सकेगा। ___.. 'ऊपरी पहचान के इस सात्विक आर्यावर्त में वह चोट सम्भव नही। उसे पाने के लिये अनार्यों और म्लेच्छों के पहचानहीन देश में जाना होगा । वहाँ, जहां मझे कोई पहचान न सके । जहाँ मनुष्य और मनुष्य के बीच की पहचान खो गई है। अपरिचय की घनघोर तमिस्रा में जहाँ आत्माएँ निरन्तर अपना ही पीड़न और घात करती विचर रही हैं । जहाँ चेहरे चीन्हे नहीं जा सकते । मुखमण्डलहीन, बेचेहरा, छिन्नमस्तों के झुंड जहाँ चारों ओर घूणिचक्र की तरह भटक रहे हैं। ___ अरे कौन प्रवेश करेगा उनकी आर्त-रौद्र चेतना के हिंसक अंधकारों में ? कौन उनकी अवचेतना में चिंघाड़ते भेड़िये के कराल जबड़े में कूदेगा ? · · · उन्हें तुम्हारी प्रतीक्षा है वर्तमान ! • • •
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