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यहाँ, इस उजाड़ उद्यान में, इस निर्जन नदी के तट पर से वह पुरुष' लुप्त हो चुका, श्रेणिक, जिसके रहते तुम इतने पराजित और भयभीत थे । जिसकी उपस्थिति तुम्हारी चरम ईर्ष्या का विषय थी। जिसे तुम सह नहीं सकते थे, और जिसके बिना तुम रह नहीं सकते थे ।
वह महावीर किसी और ही तट पर उतर गया, आत्मन् । अब यहाँ अकेले रह कर तुम क्या करोगे ? लौट जाओ श्रेणिक, अपने घर, अपने महालय में, चेलना के पास, आम्रपाली के पास, अपने साम्राज्य में, यदि वह सम्भव हो !
और चाहो तो प्रतीक्षा करो तथागत गौतम बुद्ध की। शायद वे तुम्हें वह दे सकें, जो मैं तुम्हें नहीं दे सका ।
अल्बिदा, अनम्य, अजेय श्रेणिक भम्भासार ।
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