Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 374
________________ ३६४ कर रहा है। बिल्लौर की भीतरी तहों में रंगों का तूफ़ान उठा है। बिल्लौर अपने हज़ारों पहलुओं में उन रंगों को चमका कर भी, अपनी उज्ज्वलता में सदा कुँवारी है। दो पूर्ण नग्नताओं का यह एक वीतराग, पूर्णराग परिरम्भण है। __ इस परिपूर्ण संचेतना और संवेदना में निराकुल सुख की कैसी शान्त नदी अविरल बह रही है। इस नदी के तट पर विचरते अनुभव हो रहा है, कि मेरी इन्द्रियाँ ही स्वयम् अपना विषय बन गई हैं। वे स्वयम् ही अपना आत्म-सम्भोग हो उठी हैं। मेरा स्पर्श स्वयम् ही अपना अगाध मार्दव हो गया है। मैं आप अपने में ही अनायास एक अथाह कोमलता में लालित हूँ। मेरी रसना में ही अमृत के सोते प्लवित हो रहे हैं। मेरी नासिका स्वयम् मलयाचल का चन्दनबन हो गयी हैं । भेरी आँखें ही रंग, रूप, लावण्य सौन्दर्य, यौवन का अपार समुद्र हो गयी हैं। मेरे कान ही स्वयम् निखिल के नाड़ी-मण्डल की वीणा बन कर झंकृत हैं। अपनी सुषुम्ना के लय-कक्ष में अनन्त रमणी के उत्संग में निराकुल भाव से सुखासीन हूँ। महासुख-कमल की इस शैया पर, तीनों काल और तीनों लोक के सारे सौन्दर्यों में मैं निर्बाध विलास कर रहा हूँ। ___ इस विलास-कक्ष में अपने अनादि अनन्त काल-व्यापी सारे ही जीवनों और जन्मान्तरों को एक साथ ही, सम्पूर्ण जी रहा हूँ। अभी और यहाँ ।" पुरुरवा भील के कन्धे पर काली अभी और यहाँ झूल रही है। तीर्थंकर ऋषभदेव का समवशरण अभी और यहाँ मुझ में जाज्वल्यमान है। मरीचि के आगे नमित योगीश्वर भरत चक्रवर्ती का सम्वाद अभी और यहाँ मेरे साथ सीधा चल रहा है। त्रिपृष्ठ वासुदेव और प्रियमित्र चक्रवर्ती के साथ अभी और यहाँ अपनी इस स्फटिक की छत पर बिलस रहा हूँ। सिंहगिरि पर्वत के गंगा-तटवर्ती कान्तार में वह खूख्वार अष्टापद, अभी इसी क्षण मेरे भीतर अनुकम्पा से भर आया है। और उसकी करुणा, मुदिता, मैत्री को • अक्षुण्ण अभी, यहाँ अनुभव कर रहा हूँ। अच्युत स्वर्ग के अप्सरा काननों में, अच्युतेन्द्र मैं, अभी और यहाँ लावण्य के सरोवेरों में आलोड़ित हो रहा हूँ।... ___..और देवानन्दा, ऋषभ, त्रिशला, सिद्धार्थ, विन्ध्याचल की काली, शालवन की शालिनी, सारे समकालीन विश्व की चनिन्दा सुन्दरियाँ, चन्दना, चेलना, चेटक बापू, आम्रपाली, वैशाली का जन-जन, वैनतेयी, सोमेश्वर, मुझ से सम्पकित हर सत्ता, मेरी यात्राओं के सारे प्रदेश, सब मेरे साथ अभी और यहाँ, घर पर हैं। मैं उनके साथ प्रतिपल घर पर हूँ । नित्य उनके साथ उपस्थित हूँ। दुर्दान्त समुद्रों के प्रवाहों पर , आधी रातों जूझती अन्वेषक मल्लाहों की नावों पर, मैं पाल बन कर तना हुआ हूँ। ज्ञात-अज्ञात सारी ही पृथ्वियों और लोकों के, सारे ही द्वीपों और देशों के, दूर-दूर चमकते दीयों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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