Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 375
________________ ३६५ वाले घरों में, वहाँ के सारे नर-नारीजन के साथ, हर क्षण घर पर हूँ। उनके सारे सुख-दुःखों, विरह-व्यथाओं, कष्ट-सन्तापों में, उनके साथ मैं अभी और यहाँ घर पर हूँ। उनके सारे ही प्रणयालापों में, मैं इसी क्षण सहभागी हूँ। उनके सारे ही विरहाघातों में मैं अभी और यहाँ स्पन्दित हूँ। और फिर भी इसी एक कालाणु में मैं अपने स्फटिक के अन्तःपुर में, अपनी सुख-सेज में अक्षुण्ण निरावेग शयित हूँ। विरह, विषाद, अवसाद, व्याकुलता के वर्तुल विलुप्त हो गये हैं। मेरे इस निज कक्ष में मेरी शैया के सिरहाने सदा सूर्योदयं हो रहा है, और मेरे पायताने सदा सूर्यास्त हो रहा है। उदय और अवसान के तकियों पर एक साथ सर ढाले लेटा हूँ। विराट् प्रलय की वीणा पर उदय का वसन्तराग संगीत निरन्तर बज रहा है। ___ दूरियाँ अपने छोरों पर सिरा कर, मेरे पास आ खड़ी हुई हैं। दिशाएँ अंगूरों सी एक हीरे की तश्तरी में मेरे सामने पड़ी हैं। मैं अपने क्षीर सागर की शेष-शैया पर निराकुल शयित हूँ। मेरी आत्मा की कमला मेरे पैरों को गोदी लिये उन्हें सहला रही है। उसकी संवेदनाकुलता के आँसू मेरे हृदय पर ढलक आये हैं । और सकल चराचर में उसी क्षण मैं परम सम्भोग में लीन हो गया हूँ। "सहसा ही मेरा आत्मलीन काम, एक महाकाम में हिल्लोलित हो उठा। विश्व की असंख्य आत्माओं की करुणा मझे खींच रही है। समस्त नभचर, जलचर, थलचर लोक मुझे पुकार रहा है। महाकाल की अज्ञात समुद्रवेला में, नूतन सृजन की सारंगी ध्रुपद का आलाप ले रही है। और देख रहा हूँ कि विशुद्ध सत्ता के अनन्त समुद्र के भीतर अचानक एक गभीर कम्पन हुआ। उसकी शान्त. सतह पर अपूर्व नव्य परिणमन की ऊर्मियाँ बेमालूम सरसराने लगीं। ...और लो, वह महासमुद्र स्वयम् मूर्तिमान होकर, अपने निःसीम प्रसार पर चल रहा है। प्रकृति विराट् पुरुष को अपने वक्ष पर वहन कर रही है। विपुलाचल के शिखर पर से, एक चम्पई पुण्डरीक की कुमारी पृथ्वी उसके समक्ष तैर आयी है। और समुद्र-पुरुष ने सहज ही उस पर पग धारण किया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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