Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 389
________________ की चीख, आधी रात गहरी नींद में सोयी त्रिशला के हृदय पर आघात कर उसे जगा देती है । जो कि हमारे महज़ मानवीय स्तर पर आज भी एक 'टेलीपैथिक' प्रत्याघात के रूप में घटित होनेवाली स्वाभाविक मानवीय घटना कही जा सकती है। श्वेताम्बर आगमों के अनुसार महावीर के माता-पिता का देहान्त उनके गृह-त्याग के पूर्व ही हो जाता है । पर दिगम्बर कथा के अनुसार, गृह-त्याग के समय उनके माता-पिता जीवित हैं। उसके बाद महावीर की तपस्या और केवलज्ञान तक के साढ़े बारह वर्षों तक भी उनका जीवित रहना, एक संगत तथ्य हो ही सकता है। दिगम्बर कथा इस तथ्य पर मौन है। और यह मौन सम्मति देता है कथाकार को, कि कथा की जरूरत के अनुसार, तीर्थंकर महावीर के समवशरण में भी वह उनकी उपस्थिति दिखा सकता है। कर्णवेध की पीड़ा, और तज्जन्य चीख के ठीक अनुसरण में त्रिशला का आत्म-कथन आ जाता है, जिसमें उस ब्रह्माण्ड-पुरुष की चरम मानवीय वेदना का प्रत्याघात, अत्यन्त उपयुक्त रूप से सर्वप्रथम ठीक उसकी माँ के हृदय पर ही होता है। और यहीं से महावीर के मानवीकरण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। इस प्रस्थान-बिन्दु से वे माँ की वेदना में सहभागी होते हुए, क्रमशः चेलना और श्रेणिक के आत्मकथनों के माध्यम से उनकी मानवता के साथ उलझते हुए, मानो निकट भविष्य में ही केवलज्ञान द्वारा प्राणि-मात्र की वेदना में हिस्सेदारी करने की दिशा में अग्रसर होते दिखाई पड़ते हैं। त्रिशला के आत्म-कथन में, महावीर मां के साथ तद्गत होते हुए भी, मोह-मुक्त प्रेम द्वारा मोहावृत मातृ-योनि का वेष करते हैं। और उस योनि को ही वे मुक्तिरमणी में उत्संगित या रूपान्तरित कर देते हैं । चेलना और श्रेणिक के आत्मकथनों में जहाँ एक ओर महावीर की मानवीय अलभ्यता, और निगूढ़ चारित्रिकता प्रकट होती है, वहीं उसमें उनकी मानवीय ऊष्मा, उदात्तता' और मौन प्रीति के झरोखे भी खुलते दीखते हैं। इसके अतिरिक्त इन आत्म-कथ्यों की सर्वोपरि रचनात्मक सार्थकता यह है, कि ये तीनों पात्र महावीर के परिप्रेक्ष्य में ही सही, फिर भी अपनी एक स्वतंत्र व्यक्तिमत्ता, अस्मिता और सार्थकता प्राप्त करते हैं । यहाँ ऊोन्मुख मानवआत्मा की विकास-यात्रा में मुक़ाबिल होने वाले चरम आत्म-संघर्ष और आत्मपीड़न को भी अभिव्यक्ति मिलती है । कर्णवेध के प्रकरण तक तो स्वतंत्र मानव चित्त, व्यक्ति और उसके स्वाभाविक मनोविज्ञान को अवसर ही नहीं मिलता। पर इन पात्रों के आत्म-कथनों द्वारा कथा को गहरी मानवीयता और मनोविज्ञान प्राप्त हो जाता है। एक तरह से यहाँ ये तीनों मानव पात्र, अति मानव महावीर से अपनी मानवीय स्थिति की कैफियत तलब करते हैं। वे उनके अतिमानवत्व के सन्दर्भ में अपने स्वतंत्र मानवीय अस्तित्व की सार्थकता का तीखा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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