Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 396
________________ -२० महावीर उसे गहरे में कहीं एक भव्यात्मा के रूप में जान कर प्यार करते हैं, उसके आत्मोन्नयन बार पाण के निमित्त बनते हैं। इस तरह अन्य पात्रों की तरह गोशालक का यह विशिष्ट पात्रालेखन मैंने शुद्ध सर्जनात्मक सम्भावना की दृष्टि से ही चुना है । शोध क्षेत्र के विवाद में पड़ना मुझे अपने लिए अनावश्यक लगा। मुनिचन्द्र सूरि का आख्यान प्रसंग मैंने आचार्य हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टि शलाका-पुरुष' में से लिया है। उसमें सचेलक स्थविरकल्पी साधु मुनिचन्द्र की कठोर जिन-कल्पी तपस्या, और उपसर्ग-सहन के आलेखन में दिगम्बर महावीर द्वारा, श्वेताम्बर मुनिचन्द्र श्रमण के सवस्त्र होते हुए भी, उनकी उच्च आत्मोपलब्धि को स्वीकृति प्राप्त होती है। इस प्रकार इस कथा में दिगम्बर-श्वेताम्बर के बाह्याचार गत कट्टर भेदों का निरसन होता है, और शुद्ध आत्मोत्थान के स्तर पर दोनों का सहज समन्वय हो जाता है। शोध विद्वान और साम्प्रदायिक आलोचक उपरोक्त दो कथानकों और पात्रों को व्यर्थ ही विवाद का विषय न बनायें, इसी ख्याल से यह तथ्यात्मक स्पष्टीकरण मुझे जरूरी प्रतीत हुआ। मेरी इस दुर्गम सृजन-यात्रा की खड़ी चढ़ाइयों में, जिन कुछ खास मित्रों और आत्मीयों का भावात्मक सम्बल मुझे प्राप्त हुआ, उनका उल्लेख में प्रथम खण्ड के समापन में कर चुका हूँ। पर एक नाम मैं अपने हृदय में सुरक्षित और गोपित रक्खे रहा। और उसे अलग से लेना चाहता था।"उत्तर छायावादी काव्य के प्रवर्तक महाकवि बच्चन । सन् '७१ में बच्चन भाई, मानो मेरे लिये भगवान के भेजे ही, ठीक विले पारले की जुहू कॉलनी में आ बसे । भीतर-भीतर बरसों से, दूरी के बावजूद, उनके साथ मेरा एक गहरा सम्वाद चलता रहा था। लेकिन 'अनुत्तर योगी के गर्भाधान के मुहूर्त में अचानक वे मेरे पास चले आये। तब से लगभग प्रथम खण्ड की समाप्ति तक उनका सुखद और तन्मय साहचर्य मुझे प्राप्त रहा। अमिताम का मकान मेरे घर से बहुत दूर नहीं है, जुहू-कॉलनी में। रचना के कठिन पड़ावों और चढ़ावों में जब भी मेरा दम घुटने लगता, तो क़लम डाल कर किसी भी शाम बच्चन भाई के पास जा पहुँचता। और तब उन अग्रज के प्यार भरे सामीप्य में, किस कदर राहत और ताजगी मिलती थी, क्या बताऊँ। सृजन के उन्मेष और प्रसव-पीड़ा के दौरान, उनके साथ जो आत्मा की गहरी हिस्सेदारी मुझे प्राप्त हुई, वह अपने आप में एक कलाकार की आत्म-कथा का महत्त्वपूर्ण अध्याय है। सन् '७०-७१ से'७२-७४ तक के उन तीन-चार बरसों में उनके साथ जो तन्मय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 394 395 396 397 398 399 400