Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 397
________________ stria की शामें बीतीं, उन्हें मैं एक आध्यात्मिक मिलन प्रसंग ही कह सकता हूँ । उस दौर में मानों हम दोनों ने हिन्दी के समूचे इतिहास और समकालीनता को संयुक्त रूप से जिया । हम दोनों ने एक-दूसरे के आत्मिक इतिहास में भी बहुत गहराई से अवगाह्न किया । मेरे जीवन में सम्वेदन और सर्जन की सहभागिता के ऐसे प्रसंग विरल ही रहे हैं। बच्चन भाई के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करके, उन्हें अपने से अलग कैसे करूँ । TS प्रथम खण्ड बच्चन भाई ने दिल्ली स्थानान्तरित होने के बाद ही पढ़ा। उसे पढ़ कर वे इतने भावित, मुग्ध और विभोर हुए, कि बम्बई आते ही, मिठाइयों के दो बड़े सारे पैकेट लेकर, वे मेरे पास दौड़े चले आये। ऐसा लाड़-प्यार आज के इस बंजर भावहीन युग में कौन किसी को देता है । 'बचुवा' कह कर जिस गहरी नज़र से वे मुझे पीते रहते हैं, उस सुख को कथन में कैसे लाऊँ । 'अनुत्तर योगी' की चन्दनबाला और वैनतेयी, अपने विदग्ध सृजनात्मक आविर्भाव के लिये, नवलेखन की विशिष्ट कहानीकार तथा कवयित्री सुनीता (डॉ. सुनीता जैन ) की ऋणी हैं। जिस सम्वेदना में से ये दोनों पात्रियाँ, और अन्य स्त्रियां भी आकार लेती चली गईं, उसमें सुनीता की भागीदारी को भुलाया नहीं जा सकता । श्रीकृष्ण जन्माष्टमी : ३० अगस्त, १९७५ गोविन्द निवास, सरोजिनी रोड, विले पारले (पश्चिम), बम्बई - ५६. गत फरवरी में, 'अनुत्तर योगी' के उद्घाटन प्रसंग पर मैंने कुछ आगाहियाँ की थीं। वे बाद के महिनों में सच हुईं। अब फिर से दोहराता हूँ, कि सन् १९७५, यानी महावीर - निर्वाण की पच्चीसवीं शती का यह वर्ष, एक बुनियादी विप्लव का पर्व है। इसकी समाप्ति किसी कृत्रिम ठहराव की शान्ति में नहीं हो सकेगी। आगामी महीनों के अन्तराल में मैं ऐसे तूफ़ान गरजते देख रहा हूँ, जो मौजूदा संसार का तख्ता भी उलट सकते हैं। आप देखें, क्या-क्या होता है । Jain Educationa International ० ० O For Personal and Private Use Only - वीरेन्द्रकुमार जैन www.jainelibrary.org

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