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आत्मार्पण और शरणागति तथा उसका आत्मिक रूपान्तर भी निश्चय ही एक उन्नयनकारी सम्वेदनात्मक अपील पंदा कर सकता है। उन हत्यारों की आत्मग्लानि, पश्चाताप, तथा उसके द्वारा उनकी जन्म-जन्मान्तरों की कषाय-ग्रंथियों का मोचन, और फलतः उनका रूपान्तरण और आत्मबोध भी मानव हृदय पर अतिमानव महावीर के अचूक संघात और प्रभाव का सृजन तो करते ही हैं । पर इस तरह अन्य मानव चरित्र, महज़ महावीर की महिमा को झेलने और प्रतिबिम्बित करने वाले पात्रों और दर्पणों के रूप में ही घटित होते हैं। उनकी किसी स्वतंत्र मानवीय स्थिति या प्रतिक्रिया को इसमें अवसर नहीं मिलता। ... .इस समूचे खण्ड में केवल चन्दना का प्रसंग ही सही मानवीय अर्थ में हृदयस्पर्शी है। इसी से चंदना की आत्मकथा को यथा सम्भव अधिकतम मानवीय सम्वेदना के पट पर रचना मेरे लिये सम्भव हो सका है। मैं उसे एक स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान कर सका हूँ। इस अपवाद के अतिरिक्त उपसर्गों की पूरी आख्यानमाला सृजनात्मक दृष्टि से ऐसी किसी संश्लिष्टता या जटिलता (काम्पलेक्सिटी) को अवसर नहीं देती, जिसके अभाव में एक औपन्यासिक महा काव्य अपनी यथेष्ट गरिमा और गहराई नहीं प्राप्त कर पाता।
यह स्पष्ट होने पर, इस अनिवार्य आयाम को उभारने के लिये, मैंने कर्णवेध और केवलज्ञान के बीच के रिक्त लगते अन्तराल में आठ नये अध्याय रचे, जो सम्भवतः एक महद् उपन्यास की उपरोक्त शर्त को पूरा करते हैं। इन अध्यायों में दो-तीन काम एक साथ हो सके हैं। इस कृति को उसकी उपयुक्त 'काम्पलेक्सिटी' प्राप्त हो सकी है। कर्णवेध की दारुण वेदना के माध्यम से, अतिमानवीय महावीर भी अपने अकम्प कायोत्सर्ग से उतर कर अत्यन्त मानवीय संवेदना के स्तर पर हमें उपलब्ध हो जाते हैं। एक ओर है चक्रवर्तित्व की महत्वाकांक्षा से प्रमत्त सम्राट बिम्बिसार श्रेणिक का पराजेय पार्थिव अहंकार । दूसरी ओर है त्रैलोक्येश्वर, फिर भी अकिंचन महावीर की अपराजेय आत्मिक प्रभुता। मगध और वैशाली के संघर्ष में, प्रथम खण्ड में ही यह टकराव और उलझाव, अनजाने ही सम्पूर्ण उपन्यास की केन्द्रीय विषय-वस्तु का रूप ले लेता है । द्वितीय खण्ड के उपरोक्त आठ अध्यायों में यह संघर्ष एक गहरा मनोवैज्ञानिक, आन्तरिक
और तात्त्विक रूप प्राप्त कर लेता है । इस तरह यह टकराव और उलझाव पूरे उपन्यास को एक-सूत्रात्मक अन्विति प्रदान कर देता है। और एक बड़े उपन्यास के योग्य संश्लिष्टता भी, इस उलझाव में से उपलब्ध हो जाती है । ____इंन आठ अध्यायों में महावीर का एक अत्यन्त मानवीय सम्वेदनात्मक व्यक्तित्व भी हमें अनायास हासिल हो जाता है। उनके आत्मविकास की यात्रा यहाँ आकर, सपाट रेखा को तोड़ कर, चक्राकार हो जाती है। वह महज़ लीनियर' न रह कर 'सायक्लिक' हो जाती है, और इस तरह वह अनिवार्य मनोवैज्ञानिक
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